रविवार, 18 अक्तूबर 2015

The Organizer: श्रमिक-एकता की एक बेमिसाल कहानी

-निशांत
एक ऐसी फिल्म जिसके बारे में आप जानते नहीं हों लेकिन जिसे आप हमेशा देखना चाहते रहे हों उसे देखने के बाद का अनुभव अद्भुत रहता है.
Marcello Mastroianni​ एक लेबर एक्टिविस्ट प्रोफेसर के किरदार में हैं जो परिस्थितिवश ट्यूरिन (इटली) के टेक्सटाइल मज़दूरों को ओर्गनाइज करते हैं. 18वीं सदी के आख़िर में ब्रिटेन से बाहर बाकी यूरोप में लम्बे working hours (14 घंटे प्रतिदिन) और अन्य अन्यायपूर्ण दमनकारी प्रवृत्तियों के खिलाफ़ श्रम की ताक़त (पॉवर ऑफ़ लेबर) ने किस तरह ख़ुद को आज़माना शुरू किया और इस संघर्ष ने किस तरह अपना रास्ता इख्तियार किया- इसे फिल्म का स्क्रीनप्ले सटीक पंक्चुएशन के साथ प्रस्तुत करता है. फिल्म उस ऐतिहासिक दौर के स्नैपशॉट्स का मोंटाज बन पड़ी है. किसी ने लिखा है-"... the film is not so much a call to action as to recollection—both a historical monument and a taboo-breaking depiction of a specific moment."

[Prof. Sinigaglia (Mastroianni) एक दृश्य में कामगारों को संबोधित करते हुए. चित्र: filmforum.org/film/the-organizer-copy]
निर्देशन इतना प्रभावी और कहानी बेकार के मेक-अप से इतनी दूर है है कि आप फिल्म को देखने के दौरान खुद को working-class के साथ ट्यूरिन में पूरी solidarity के साथ मौजूद पाएँगे. चूँकि प्रोफेसर का किरदार एक आउटसाइडर की तरह कहानी में प्रवेश लेता है तो उसका मौजूद होना दर्शक की मौजूदगी में मदद करता है. 
एक दृश्य है कि प्रोफेसर और जवान श्रमिक राओल मजदूर संघर्ष के सफल होने के चांसेस पर डिबेट कर रहे हैं-
राओल- तुम हमारी तरह नहीं हो. तुम हममें से नहीं हो. जिस तरह अचानक एक दिन आए थे, उसी तरह एक दिन गायब हो जाओगे.
प्रोफेसर- बिलकुल ठीक. मैं तुम लोगों जैसा नहीं हूँ. मेरा घर नहीं, परिवार नहीं, न दोस्त, अगर कोई मेरी परवाह करता है तो वो है पुलिस.
राओल- तो फिर तुम ये सब कर क्यों रहे हो ?
प्रोफेसर- क्यों?... क्योंकि मेरे पास इतने सारे बेवक़ूफ़ लगने वाले विचार हैं.
एक अन्य दृश्य में प्रोफेसर की आर्गेनाईजेशन का एक अन्य साथी पूछता है कि हम ये सब कर क्यों रहे हैं ? प्रोफेसर का जवाब होता है कि शायद हम सब (labor activists) के दिमाग फिर गये हैं.
इसी सिलसिले में एक अन्य दृश्य है-
"आप प्रोफेसर हैं. इन सब चक्करों में कैसे पड़े ?"
"ख़ुदगर्ज़ होने के कारण."
"मैं समझी नहीं."
"ये मेरी पसंद है. और जब आपको कुछ पसंद है तो ये त्याग नहीं हुआ. और ये सब कुछ इसलिए करना है ताकि एक दिन तुम्हारे जैसी कोई लड़की वो करने को मजबूर न हो जो तुम्हें करना पड़ रहा है. "
फिल्म के सबसे प्रभावी दृश्यों में से एक अंतिम दृश्य है. संघर्ष के दौरान पुलिस की गोली का शिकार होने वाले एक कम-उम्र मजदूर का छोटा भाई (करीब 10 साल उम्र)- जिसके लिए उसके बड़े भाई का सपना था कि वो ग्रेजुएट करे- अंततः मजदूरी करने को मजबूर होता है. 'और चक्र चलता जाता है'- ये फिल्म के कथ्य का निहित सन्देश उभरता है. लेकिन इसे पेसिमिस्ट विचार के तौर पर डेवेलप होने नहीं दिया गया है जो इसे प्रामाणिकता देता है.
उस दौर को फिल्म का सब्जेक्ट बनाकर बात कहने का Gillo Pontecorvo ( Burn!, The Battle of Algiers) ने जो अंदाज़ लिया उससे Mario Monicelli का अंदाज़ बहुत फ़र्क है. दृश्यों में एक किस्म की कॉमेडी है जो उन्हें ज़िंदा बनाने में कामयाब होती है. कोई किरदार परफेक्ट नहीं है. अंत में सब कुछ ठीक नहीं हो जाता, लेकिन संघर्ष रुकता भी नहीं है. पार्लियामेंट्री तरीकों का मोड़ देना आगे आने वाले दौर की राजनीति से कहानी को जोड़ता है. हां, ये संघर्ष जिनके लिए fatal कहा जाता है- यानि वो वर्कर जो हड़ताल afford नहीं कर सकता- उस किरदार को भी कहानी में न्याय मिला है और वो भी solidarity का हिस्सेदार साबित हुआ है.
कहा जाए तो labor movement के इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र में थोड़ा भी interest रखते हों तो इसे और पोंतेकोर्वो की फिल्मों को जरुर देखें. इस समय में जब सामाजिक चेतना को तैयार करने वाले फिल्मकारों की कमी है तो The Organizer, Burn !, The Battle of Algiers, The Working Class Goes to Heaven, मंथन - इन फिल्मों को rediscover करने की जरुरत है.

Trailer: https://www.youtube.com/watch?v=e-PZ6w_2wp0
Rotten Tomatoes: http://www.rottentomatoes.com/m/the_organizer/

बुधवार, 26 अगस्त 2015



सपने तब सिर्फ सपने थे.. उनकी परमिति सदैव सम्पूर्ण थी..
पूरे सपने
सपनों में चाहत थी पर चाह न थी..
शुद्ध सपने, पवित्र सपने.. कुछ डरावने से.. कुछ मेरे छत से गिरते.. कुछ दोस्तों के संग भटकते..कुछ आसमान में उड़ते और कुछ गुज़रे अपनों से मिलने आते थे..
आते थे यूँ ही और कुछ कह के चले जाते थे..
फिर सपने दूषित हुए,
आकांक्षा की अशुद्धियाँ मिलाई गयीं.. 
आज कहता हूँ..
सपने नहीं दिखाए गए..
सपने तो मेरे तभी पूरे थे..
जो पूरा हुआ वो कुछ और था.. वो अभिलाषा थी..
वो जो दे गया वो किसी सपने की पूर्ति न थी.. 
वो यथार्थ था.. स्वप्नहीन यथार्थ जिसमे कभी पूरे सपने नहीं आते..


Nakul Surana
#A

शनिवार, 27 सितंबर 2014

साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज


आज जबकि भगत सिंह को हर राजनीतिक दल- चाहे वो वामपंथी हो या दक्षिणपंथी- एक आइकॉन के रूप में अपना पोस्टर बॉय बना रहा है तब हमारे सामने ये प्रश्न आता है कि ऐसा क्या है एक क्रांतिकारी युवा शहीद के विचारों में जिससे वे समय के साथ और महत्त्वपूर्ण होते जा रहे हैं? उनके नारे और उनके गीत परस्पर विरोधाभासी मंचों से चिल्लाये और गाये जाते रहे हैं। और इसका मतलब यही है कि उन्हें समझा अभी भी नहीं जा रहा है। जैसे कि पुलिस चौकी में लगी उनकी तस्वीरें भी लगभग उसी तरह के विरोधाभास के तत्त्व हैं। जिस ढर्रे की पुलिस और प्रशासन से उनका प्रतिरोध रहा, वो ढर्रा अभी भी कायम है, उन्हीं की तस्वीरों के सामने।

ये प्रस्तुत लेख जून, 1928 के ‘किरती’ में छपा। यह लेख साम्प्रदायिकता की समस्या पर शहीद भगतसिंह और उनके साथियों के विचारों का सार है।

भारत वर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है। यदि इस बात का अभी यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें। किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिन्दुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहीं छोड़ी है। यह मार-काट इसलिए नहीं की गयी कि फलाँ आदमी दोषी है, वरन इसलिए कि फलाँ आदमी हिन्दू है या सिख है या मुसलमान है। बस किसी व्यक्ति का सिख या हिन्दू होना मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था। जब स्थिति ऐसी हो तो हिन्दुस्तान का ईश्वर ही मालिक है।
ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत अन्धकारमय नजर आता है। इन ‘धर्मों’ ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है। और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है। और हमने देखा है कि इस अन्धविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं। कोई बिरला ही हिन्दू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपना दिमाग ठण्डा रखता है, बाकी सब के सब धर्म के यह नामलेवा अपने नामलेवा धर्म के रौब को कायम रखने के लिए डण्डे लाठियाँ, तलवारें-छुरें हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सर-फोड़-फोड़कर मर जाते हैं। बाकी कुछ तो फाँसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिये जाते हैं। इतना रक्तपात होने पर इन ‘धर्मजनों’ पर अंग्रेजी सरकार का डण्डा बरसता है और फिर इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने आ जाता है।
यहाँ तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है। इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली। वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतन्त्रा कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज्य-स्वराज्य’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मान्धता के बहाव में बह चले हैं। सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है? लेकिन ऐसे नेता जो साम्प्रदायिक आन्दोलन में जा मिले हैं, जमीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं। जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं। और साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे। ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है।
दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं। पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था। आज बहुत ही गन्दा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। ऐसे लेखक बहुत कम है जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो।
अखबारों का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’
जो लोग असहयोग के दिनों के जोश व उभार को जानते हैं, उन्हें यह स्थिति देख रोना आता है। कहाँ थे वे दिन कि स्वतन्त्राता की झलक सामने दिखाई देती थी और कहाँ आज यह दिन कि स्वराज्य एक सपना मात्रा बन गया है। बस यही तीसरा लाभ है, जो इन दंगों से अत्याचारियों को मिला है। जिसके अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया था, कि आज गयी, कल गयी वही नौकरशाही आज अपनी जड़ें इतनी मजबूत कर चुकी हैं कि उसे हिलाना कोई मामूली काम नहीं है।
यदि इन साम्प्रदायिक दंगों की जड़ खोजें तो हमें इसका कारण आर्थिक ही जान पड़ता है। असहयोग के दिनों में नेताओं व पत्राकारों ने ढेरों कुर्बानियाँ दीं। उनकी आर्थिक दशा बिगड़ गयी थी। असहयोग आन्दोलन के धीमा पड़ने पर नेताओं पर अविश्वास-सा हो गया जिससे आजकल के बहुत से साम्प्रदायिक नेताओं के धन्धे चौपट हो गये। विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल जरूर होता है। कार्ल मार्क्स के तीन बड़े सिद्धान्तों में से यह एक मुख्य सिद्धान्त है। इसी सिद्धान्त के कारण ही तबलीग, तनकीम, शुद्धि आदि संगठन शुरू हुए और इसी कारण से आज हमारी ऐसी दुर्दशा हुई, जो अवर्णनीय है।
बस, सभी दंगों का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है दरअसल भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है। भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धान्त ताक पर रख देता है। सच है, मरता क्या न करता। लेकिन वर्तमान स्थिति में आर्थिक सुधार होेना अत्यन्त कठिन है क्योंकि सरकार विदेशी है और लोगों की स्थिति को सुधरने नहीं देती। इसीलिए लोगों को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिये और जब तक सरकार बदल न जाये, चैन की सांस न लेना चाहिए।
लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है। गरीब, मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं। इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथों मंे लेने का प्रयत्न करो। इन यत्नों से तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्राता मिलेगी।
जो लोग रूस का इतिहास जानते हैं, उन्हें मालूम है कि जार के समय वहाँ भी ऐसी ही स्थितियाँ थीं वहाँ भी कितने ही समुदाय थे जो परस्पर जूत-पतांग करते रहते थे। लेकिन जिस दिन से वहाँ श्रमिक-शासन हुआ है, वहाँ नक्शा ही बदल गया है। अब वहाँ कभी दंगे नहीं हुए। अब वहाँ सभी को ‘इन्सान’ समझा जाता है, ‘धर्मजन’ नहीं। जार के समय लोगों की आर्थिक दशा बहुत ही खराब थी। इसलिए सब दंगे-फसाद होते थे। लेकिन अब रूसियों की आर्थिक दशा सुधर गयी है और उनमें वर्ग-चेतना आ गयी है इसलिए अब वहाँ से कभी किसी दंगे की खबर नहीं आयी।
इन दंगों में वैसे तो बड़े निराशाजनक समाचार सुनने में आते हैं, लेकिन कलकत्ते के दंगों मंे एक बात बहुत खुशी की सुनने में आयी। वह यह कि वहाँ दंगों में ट्रेड यूनियन के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था ही हुए, वरन् सभी हिन्दू-मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के भी यत्न करते रहे। यह इसलिए कि उनमें वर्ग-चेतना थी और वे अपने वर्गहित को अच्छी तरह पहचानते थे। वर्गचेतना का यही सुन्दर रास्ता है, जो साम्प्रदायिक दंगे रोक सकता है।
यह खुशी का समाचार हमारे कानों को मिला है कि भारत के नवयुवक अब वैसे धर्मों से जो परस्पर लड़ाना व घृणा करना सिखाते हैं, तंग आकर हाथ धो रहे हैं। उनमें इतना खुलापन आ गया है कि वे भारत के लोगों को धर्म की नजर से-हिन्दू, मुसलमान या सिख रूप में नहीं, वरन् सभी को पहले इन्सान समझते हैं, फिर भारतवासी। भारत के युवकों में इन विचारों के पैदा होने से पता चलता है कि भारत का भविष्य सुनहला है। भारतवासियों को इन दंगों आदि को देखकर घबराना नहीं चाहिए। उन्हें यत्न करना चाहिए कि ऐसा वातावरण ही न बने, और दंगे हों ही नहीं।
1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं। न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए क्योंकि यह सरबत को मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता। इसलिए गदर पार्टी जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फाँसियों पर चढ़े और हिन्दू मुसलमान भी पीछे नहीं रहे।
इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं। झगड़ा मिटाने का यह भी एक सुन्दर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं।
यदि धर्म को अलग कर दिया जाये तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते है। धर्मों में हम चाहे अलग-अलग ही रहें।
हमारा ख्याल है कि भारत के सच्चे हमदर्द हमारे बताये इलाज पर जरूर विचार करेंगे और भारत का इस समय जो आत्मघात हो रहा है, उससे हमे बचा लेंगे।

आभार : यह फाइल आरोही, ए-2/128, सैक्टर-11, रोहिणी, नई दिल्ली — 110085 द्वारा प्रकाशित संकलन ‘इन्कलाब ज़िन्दाबाद’ (सम्पादक : राजेश उपाध्याय एवं मुकेश मानस) के मूल फाइल से ली गयी है।