- रवि मीणा
जब जब प्यासी धरती की आकुलता बढ़ती है,
जब हर कीट पतंगे की
दीपक को पाने की व्याकुलता बढ़ती है,
लेकिन उसी पतंगे की जब
दीपक से मिलकर भी व्याकुलता बढ़ती है ,
तब तब मैं लेखन कर ऐसे दीप बुझाता हूँ।
जब जब प्यास सताती है ,
उम्मीदें सागर-तटवासी होने पर इतराती हैं,
लेकिन जब सागर का पानी खारा लगता है ,
तब तब मैं लेखन से प्यास बुझाया करता हूँ।
जब जंगल का राजा गलती से बंदर बन जाता है,
जब बन बकरी फरियादी फरियाद लगाती है,
वह केवल उछल-कूद कर दोनों का मन बहलाता है,
तब तब मैं लेखन कर मन बहलाता हूँ।
जब सूर्यमुखी को 'रवि' का अमिताभ नजर नहीं आता,
जब फूलों को खिलना रास नहीं आता,
जो खिलते है उनमें सौरभ का आभास नजर नहीं आता,
तब तब मैं लेखन के फूल खिलाया करता हूँ।
जब लोगों को लहरों में मोती का अमिताभ नजर नहीं आता,
जब लोगों को जलते दीपों का प्रकाश नजर नहीं आता,
दीपों को खुद दिन में भी जलने का जब राज समझ नहीं आता,
तब तब मैं रवि लेखन का प्रकाश लुटाया करता हूँ।
जब जब अम्बर से तारे टूटा करते हैं,
टूट धरा के हृदय को भेदा करते हैं,
तारों के दुख में जब धरती रोया करती है,
तब मैं स्वलेखन के राग सुनाकर दर्द मिटाया करता हूँ।
जब नीवों से ज्यादा कंगूरे पूजे जाते हैं,
जब गंगा को पूजा और गंगोत्री को भूला जाता है,
उस पूजा का मकसद भी जब मैला ही बहाना होता है,
तब तब मैं लेखन की गंगा बहाता हूँ।
जब कलियों को ही ,तोड़ा जाता है,
जब वृक्षों को मुरझाया जाता है,
मुरझाने को जब हर हाथ उछलता है,
तब तब मैं लेखन को हाथ उठाता हूँ।
जब जब प्यासी धरती की आकुलता बढ़ती है,
जब हर कीट पतंगे की
दीपक को पाने की व्याकुलता बढ़ती है,
लेकिन उसी पतंगे की जब
दीपक से मिलकर भी व्याकुलता बढ़ती है ,
तब तब मैं लेखन कर ऐसे दीप बुझाता हूँ।
जब जब प्यास सताती है ,
उम्मीदें सागर-तटवासी होने पर इतराती हैं,
लेकिन जब सागर का पानी खारा लगता है ,
तब तब मैं लेखन से प्यास बुझाया करता हूँ।
जब जंगल का राजा गलती से बंदर बन जाता है,
जब बन बकरी फरियादी फरियाद लगाती है,
वह केवल उछल-कूद कर दोनों का मन बहलाता है,
तब तब मैं लेखन कर मन बहलाता हूँ।
जब सूर्यमुखी को 'रवि' का अमिताभ नजर नहीं आता,
जब फूलों को खिलना रास नहीं आता,
जो खिलते है उनमें सौरभ का आभास नजर नहीं आता,
तब तब मैं लेखन के फूल खिलाया करता हूँ।
जब लोगों को लहरों में मोती का अमिताभ नजर नहीं आता,
जब लोगों को जलते दीपों का प्रकाश नजर नहीं आता,
दीपों को खुद दिन में भी जलने का जब राज समझ नहीं आता,
तब तब मैं रवि लेखन का प्रकाश लुटाया करता हूँ।
जब जब अम्बर से तारे टूटा करते हैं,
टूट धरा के हृदय को भेदा करते हैं,
तारों के दुख में जब धरती रोया करती है,
तब मैं स्वलेखन के राग सुनाकर दर्द मिटाया करता हूँ।
जब नीवों से ज्यादा कंगूरे पूजे जाते हैं,
जब गंगा को पूजा और गंगोत्री को भूला जाता है,
उस पूजा का मकसद भी जब मैला ही बहाना होता है,
तब तब मैं लेखन की गंगा बहाता हूँ।
जब कलियों को ही ,तोड़ा जाता है,
जब वृक्षों को मुरझाया जाता है,
मुरझाने को जब हर हाथ उछलता है,
तब तब मैं लेखन को हाथ उठाता हूँ।
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