अबकी बरस की
पूरनमासी वाली रात ,
हाँ, उसी सर्द रात को,
प्रेमचंद वाली पूस की रात से
थोडा ज़्यादा सर्द रात को,
खिड़की और दरवाज़े के दरम्यान
वक़्त तराशा था , जब बैठा था ।
खिड़की के उस पार दिखे थे
दिन गिरते उठते बचपन के
और गौर से देखा , पाया
झूले पे अंगड़ाते सावन को
एक अचानक आहट आई
दरवाज़े पर मानो टूटा हो
वक़्त का टुकड़ा अभी अभी
मुड़कर पीछे देखा पाया
घर की बिल्ली गिरा गयी थी
गेंदे वाला मिट्टी का गमला
इसी फेर में बिखरा गयी थी
उन फूलो को फर्श पर जो कभी
गमलो में अटके हुआ करते थे ,
टुकुर टुकुर देखा करते थे ।
निकली छोटी सी आह
मानो रुक ही ना पाई हो
कोशिश करके रुकते-रुकते भी ।
मानो छलक पड़ी हो
कोशिश करके रिसते रिसते ही ।
वापिस खिड़की से जब झाँका
नज़र गायब थी ,
नज़र ओझल थी ।
खिड़की और दरवाज़े के दरम्यान
दूरी बहुत थी
फ़ासले तमाम थे।
खालीपन पसरा बैठा था ,
खुद से मेरा संवाद रुका था।
तभी कहीं से आई हँसती
बीच बीच में शोर मचाती
लड़ लेतीं पहले आपस में
अब देखो हैं रोती गाती ।
ये सखियाँ हैं उड़ी कहाँ से
ये सखियाँ उड़ चली कहाँ तक
ये सखियाँ हैं कोई फ़रिश्ते
यहीं दरमियां मंतर पढ़ती
यहीं दरमियां कलमे गातीं
खिड़की से हैं आती-जाती
दरवाज़े से जाती-आती
सोंधा करते यही दर्मियाँ
ये कानों में कहती जातीं -
गुजरा वक़्त खिड़कियों से दिखता है
गुजरे वक़्त के दरवाज़े नहीं खुलते ।
खिड़की और दरवाज़े के दर्मियाँ
गुजरा वक़्त तराशा था, जब बैठा था।
( निशांत जन-अभियांत्रिकी में तृतीय वर्ष के छात्र हैं )
( निशांत जन-अभियांत्रिकी में तृतीय वर्ष के छात्र हैं )
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