रविवार, 26 जनवरी 2014

छंद एक चौपाल है

- हिंदी साहित्य सभा
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर |


"कई बार यूँ ही देखा है, ये जो मन की सीमारेखा है, मन तोड़ने लगता है!"  गीतकार योगेश की इन पंक्तियों में एक युवा रचनाकार का मर्म छुपा है| एकांत में एक समय आता है जब अंतस उबाल मारने लगता है और कलम हाथ आते ही कोरा कागज़ छंदों से भर जाता है|


हमारी कविता युवा भावनाओं की मौन चीख है| हम अज्ञेय, महादेवी, प्रसाद, पन्त या निराला जैसे साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़े हुए हैं, उनसे सीखते हुए कविता के बीज अपने अन्दर बोये हैं, मिर्ज़ा ग़ालिब, गुलज़ार, साहिर लुधियानवी के गीतों को सुनकर-पढ़कर लेखन के पौधे को खाद-पानी दिया है|

तरुणाई से युवा होने के इस दौर में अब इस पौधे पर फूल आने लगे हैं- कुछ फूल बनते हैं और सूख जाते हैं, इनमें से कुछ खुशबूदार हैं जिनसे आस पास के लोग भी महक जाते हैं जबकि कुछ साधारण भी हैं, निकट भविष्य में जिनके खुशबूदार और आकर्षक बन जाने की आशापूर्ण घोषणा डार्विनवाद के आधार पर की जा सकती है | लेकिन देखने वालों को ये कैसे भी लगें , पेड़ को और माली को तो ये सभी पसंद आते हैं|

आप इस ब्लॉग को हिंदी साहित्य सभा, आई आई टी कानपुर की वर्चुअल चौपाल कह सकते हैं | इसमें सहयोग करने वालों में आप भी हो सकते हैं बशर्ते आप खुद को युवा रचनाकार मानते हों और इस चौपाल में शरीक होना चाहते हों| यदि आप चाहें तो अपनी रचनायें हमें इस पते पर भेज सकते हैं -

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द मेकिंग ऑफ़ महात्मा : एक समीक्षा

- आदित्य राज सोमानी

And why should you not fight in the course of Allah?
And raise for us from thee, one who will protect.
और अल्लाह ने गाँधी को भेज दिया.

फिल्म की शुरुआत चाहे जहाँ से हो गाँधी की शुरुआत यही से होती है. रजित कपूर अपनी शांत और धैर्य भरी आँखों से जब ये दो पंक्तियां कुरान से पढेंगे तो मानो लगेगा की कृष्ण गीता का पाठ कर रहे हों. कहानी में इस समय तक बस एक दुबला पतला पतली मुछो वाला नौजवान दिख रहा होगा. जिसका नाम मोहन दास है. पर अब इस कहानी में चाहकर भी आप गाँधी को नजर अंदाज नहीं कर पाएँगे. हाँ शायद आपका भी मन कर जाए की इस फिल्म के पोस्टर को एक बार फिर देखें. The making of mahatma. मुझे हालाँकि इस शीर्षक से कुछ दिक्कते हैं, क्योंकि ये कहानी महात्मा के नहीं; गाँधी के बनने की है. आप और हम शायद अपने अंतिम नाम के लिए बचपन से ही सार्थक रहे होंगे पर गाँधी को गाँधी बनना पड़ा. तो ये कहानी है उस समय की जब मोहनदास पहली बार अफ्रीका गए.

श्याम बेनेगल ने तथ्यों के साथ नाइंसाफी किये बिना इस फिल्म को अपनी सीमा तक रोचक बना दिया है. फिल्म चूँकि पुरानी है इसलिए कई जगह हमें ये लग सकता है की यहाँ कुछ बेहतर हो सकता है. पर विश्वास मानिये वो नहीं हो सकता. श्याम बेनेगल ने कहनी की सूत्रधार बनाया है कस्तूर गाँधी को, पल्लवी जोशी को. पल्लवी जोशी एक बार सोंच में उतरने के बाद नहीं भुलाई जा सकतीं. क्योंकि वो आज की या समकालीन सुप्रसिद्ध और खुबसूरत अभिनेत्रियों की तरह सिर्फ नजरो में नहीं उतरतीं. हालाँकि सादगी उनके किरदार की जरूरत थी, पर फिर भी ये मानने का मन नहीं करता की वो इससे कुछ भी भिन्न होंगीं. पल्लवी जोशी और रजित कपूर आँखों से इतना कुछ कह देते हैं की श्याम बेनेगल की फिल्मो में स्क्रिप्ट राइटर की अहमियत ही पता नहीं चलती. पर ये फिल्म कुछ अलग है. हर दुसरे मिनट एक ऐसा संवाद आएगा की आपको लगेगा जीवन का पूरा गूढ़ रहस्य उंढेल दिया गया है. गाँधी के विकास और सोंच को जिस सुनियोजित क्रम से फातिमा मीर ने पिरोया है वो एक क्रांति के विकास का पूरा साहित्य है. आन्दोलनों का बनना बिगड़ना, सफलताएँ असफलताएँ, लोगों का साथ विरोध, धैर्य और संघर्ष; जॉन रस्किन के आश्रम का एक खुबसूरत जमीनीकरण और समाचार पत्र का हथियार के रूप में सामने आना इस साहित्य की खूबसूरती है. अफ्रीका के समकालीन राजनीतिक और सामजिक परिवेश पर किया गया गहन शोध आप साफ़ देख पाएँगे.

पर ये सब कुछ नया नहीं है. हजारो बार कहा जा चुका है पढ़ा जा चुका है. तो फिर नया क्या है. नया है गाँधी का घर. कस्तूर और मोहनदास की एक अनोखी सी प्रेम कथा जिसका निर्धारण अफ्रीका की परस्थितियाँ कर रही थी. गाँधी और उनके बच्चो के संवाद जो आंदोलनों के बनने और बिगड़ने के साथ बदल रहे थे और गांधी का असफल पारिवारिक जीवन जो हर विद्रोही या क्रन्तिकारी का सपना हो सकता है. इस पूरी फिल्म में जहाँ एक और अफ्रीका के भारतीय, समाज में परिवर्तित हो रहे थे , मोहनदास गाँधी में ढल रहे थे वहीँ कस्तूर कस्तूरबा बन रहीं थीं. एक साधारण भारतीय घरेलु महिला जो अपने परिवार और पति से प्रेम करती है और उनके लिए अपना जीवन कुर्बान करने को तैयार है फिल्म के अंत तक सिर्फ गाँधी पर समर्पित हो जाती है. इस फिल्म के अंत तक आपको कस्तूर गाँधी यानि की पल्लवी जोशी से प्यार हो जाएगा. और कही न कहीं कस्तूर के जीवन के सभी संकटों के लिए गांधी को आप दोषी पाएँगे.

इस पूरी फिल्म में आपको पार्श्व में एक संगीत बजता सुनाई देगा. वनराज भाटिया ने बेहद खूबसूरती के साथ इसे हर जगह बाँधा है. यदि आप इन बारीकियों पर ध्यान देने वालों में से हैं तो मैं आपको बता दूँ की हर बार जब ये संगीत बजेगा तो आपको लग सकता है की ये सारे जहाँ से अच्छा की धुन है या शायद जन गन मन की पर फिल्म के अंत में आप जानेंगे की ये संगीत गाँधी के कितने करीब है. 

पर इस कहानी में और भी कुछ है जो अभी कहना बचा है. जो कहना जरूरी भी है. गाँधी के आन्दोलन और उनकी सफलताओं की केवल एक वजह ही आपको दिखाई देगी और वो है विश्वास, प्रेम और प्रयोग. बेशक त्याग के बिना ये सब कुछ नहीं किया जा सकता था पर सफलता केवल इन्ही वजहों से मिली. अपने सिद्धांतो के साथ समझौता ना करना और धैर्य के साथ अटल रहने के अलावा ये फिल्म आपको पोलिटिकल एक्टिविज्म की जरूरत बताएगी. इस फिल्म को देख कर भी यदि कुछ करने का मन ना हो तो मैं कहूँगा की आप समझदार हैं. क्योंकि विद्रोही इतने समझदार नहीं होते, तभी तो दुनिया बदल देते हैं. 

बहुत कुछ और भी कहा जा सकता है पर पूरा नहीं. ये फिल्म विचारों और कला से परिपूर्ण एक अद्भुत अनुभूति है. तो जाइए फिल्म देखिये या मुझसे ले जाइये और कुछ करने के लिए हाथ बढाइये। 

(लेखक आई आई टी कानपूर में द्वितीय वर्ष के छात्र हैं)

शहीदों से माफ़ी



- प्रेमचंद गाँधी

शहीदों !

मैं पूरे देश की ओर से
आपसे क्षमा चाहता हूँ। 

हमें माफ़ करना
हमारे भीतर आप जैसा
देश प्रेम का जज़्बा नहीं रहा





हमारे लिए देश
रगों में दौड़ने वाला लहू नहीं रहा
अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं से आबद्ध
भूमि का एक टुकड़ा मात्र है देश 

हमें माफ़ करना 
हम भूल गये हैं
जन-गण-मन और
वंदे मातरम् का फ़र्क
नहीं जानते हम
किसने लिखा था कौनसा गीत
किसके लिए 

हमें माफ़ करना
हमारे स्कूल-घर-दफ़्तरों में
आपकी तस्वीरों की जगह
आधुनिक चित्रों और 
फ़िल्मी चरित्रों ने ले ली है 

हमें माफ़ करना
‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ गाते हुए
भले ही रुँध जाता होगा
लता मंगेशकर का गला
हमारी आँखों में तो कम्पन भी नहीं होता 

हमें माफ़ करना
हम देशभक्ति के तराने
साल में सिर्फ़ दो बार सुनते हैं 

हमें माफ़ करना
हम परजीवी हो गये हैं
अपने पैरों पर खड़े रहने का
हमारे भीतर माद्दा नहीं रहा
हमारे घुटनों ने चूम ली है ज़मीन
और हाथ उठ गये हैं निराशा में 
आसमान की ओर 

हमें माफ़ करना
आने वाली पीढ़ियों को
हम नहीं बता पायेंगे
बिस्मिल, भगतसिंह, 
अशफ़ाक़ उल्ला का नाम 

हमें माफ़ करना
हमारे इरादे नेक नहीं हैं 

हमें माफ़ करना
हम नहीं जानते
हम क्या कर रहे हैं
हमें माफ़ करना
हम यह देश 
नहीं सँभाल पा रहे हैं ! 

शनिवार, 25 जनवरी 2014

रजाई


- निशांत सिंह 


कुछ बातें होती हैं
ढोल पर पहली थाप जैसी
अँधेरे को चीरती
हाथों से टटोलती
आगे बढ़ती हैं।

उनके पैर अंदर होते हैं
रजाई में
सिर्फ़ आँखें बाहर निकालकर
देख लेती हैं,
कर लेती हैं तफ्तीश ;
और तसल्ली हो जाये तो
इत्मीनान से
वापस ओढ़ लेती हैं
रजाई को खोल जैसे।

अंदर भी सिकुड़ती ही रहती होंगी !
अपनी पूंछ को
जीभ से मिलाये
सिमटी हैं,
देखो !

हाँ! लेकिन इतना है कि
अब ठिठुरती नहीं हैं
वो नंगी बातें !

कुछ बातें होती हैं
ढोल पर थाप जैसी।

(निशांत आई आई टी कानपुर में तृतीय वर्ष के छात्र हैं)

सोमवार, 20 जनवरी 2014

यूँ ही कुछ ख़्याल !


- सुरभि ममता कारवा 

मध्य रात्रि का समय है, लगभग डेढ़ बजे है । पर मेरी आंखो में नींद नहीं है। ना ! ना! ना मुझे किसी से प्यार है, ना में बीमार हूँ । पर फिर भी निद्रा देवी मेरे कक्ष में नहीं है । क्योंकि मैंने मैंने ऐसी सुंदरता देख ली है की अब नींद लेना संभव नहीं। आज मैंने अंधकार की रानी रात की सुंदरता देख ली है।

अहा ! कितना मनोरम दृश्य है ! पश्चिम दिशा का एक तारा इस तरह चमक रहा है कि सातों रंग की झलक दे रहा है। वो ऐसे टिमटिमा रहा है जैसे मोहिनी के नाक की नथ का हीरा सूर्यप्रकाश में चमकता है। एक बजे है, फिर भी न जाने क्यू चिड़ियाए चहचहा रही है। उनकी आवाज दु:खों को दूर करने वाले संगीत की भांति प्रतीत होती है। इन स्वर  कोकिलाओं का गान  दूर किसी कुत्ते के भौंकेने से ज़रा सा भंग हो रह है। पर ज्यादा हानी नहीं पहुँचा रहा क्योंकि खूबसूरती के आगे बदसूरती ज्यादा टीक नहीं सकती। इस प्रकृति में आधुनिकता भी ठीक उसी तरह शामिल हो गयी है जैसे जल में नमक। चिड़ियों के सतह लोहपथगामिनी की आवाज़ भी मधुर ही लग रही है। दिन में सरदर्द का कारण, पर्यावरण के दुश्मन कहलाने वाले वाहन भी रात में कष्ट नहीं देते। सूनी सड़क पे इक्का- दुक्का वाहन नज़र आ ही जाता है। अरे ! ये देखो! एक कुत्ता कचरे में मुँह मार रहा है। शायद इन्सानो के इस कचरे में इसे खजाना मिल जाए। क्या विषमता है? किसी का कचरा किसी का खज़ाना है। खैर! छोड़ो! विषमता पर चर्चा करने बैठे तो मेरा प्रकोप ही कागज पर उतरेगा।

इन तारों को देखकर ऐसा लग रहा है की जैसे एकाध को तोड़कर अपने पास रख लूँ। तारों से भरा आकाश मेरी चमकीली सजावट वाले काले- गहरे नीले दुपट्टे सा ही है। इन तारों में, इस रात के अंधकार में मुझे सूर्य प्रकाश से ज्यादा सुंदरता नज़र आती है। क्यों? एक कहानी सुनिए जो मैंने कहीं पढ़ी थी -

एक बार एक राजा ने शांति, सृजन का आभास कराने वाले  सर्वोत्तम चित्र को सम्मानित करने का निश्चय किया। धन राशि के लालच में सभी छोटे-बड़े चित्रकार आए। कोई एकदम शांत समुद्र का चित्रा लेकर आया तो कोई उगते हुए वृक्ष का। कोई दुग्ध से श्वेत झरने का चित्र लाया। पर एक ऐसा चित्र था जिसकी सबने खिल्ली उड़ाई। उस चित्र को मुद्दे से भटका हुआ बताया । चित्र था  भी ऐसा ही। तूफान का चित्र, सब कुछ उड़ रहा था, तेज हवा चल रही थी। पर राजा ने उसे ही विजेता चुना। नहीं!  नहीं! राजा ने कोई रिश्वत नहीं ली थी। पर चित्र सच में शांति व सृजन का प्रतीक था। चित्र के एक कोने में नीचे की तरफ एक छोटा सा फूल खिल रहा था।  उस तूफान में भी न केवल वो फूल खिल रहा था बल्कि मजबूती से खड़ा भी रहा। कहने का मतलब है कि  सूर्य प्रकाश कि क्या प्रशंसा करना? प्रशंसा करनी है तो उन तारों कि करो जो इतनी अंधकारमायी रात में भी रोशनी दे रहे हैं, चाहे छोटी ही सही! जीवन में सर्वाधिक बुरी चीजों में भी कुछ अच्छाई होती है। विध्वंस में भी सृजन होता है। ये तारे आशा के प्रतीक हैं। घनी अंधियारी काली रात में भी, कठिन से कठिनतम परिस्थितियों में भी राह है बशर्ते आप उसे देखो। ये तारे प्रतीक हैं कि सुबह होगी,जैसे सूर्य प्रकाश का ज़ोर  नहीं चला वैसे रात्रि का भी ज़ोर नहीं चलेगा।

इसी बीच मेरी नज़र एक गाय पर अटक गयी है। ये गाय अपने बछड़े को अपने अग्रभाग के पास , स्वयं से चिपका कर बैठी है। कितनी चिंता होती है न माँ को! मैं भी ये लेख छोटे से, जीरो वाट के बल्ब में लिख रही हूँ। अगर मैंने लाइट चलाई और माँ ने देख लिया तो चिंतित हो उठेगी। तुरंत दरवाजा खटखटाकर पूछेगी , तू ठीक तो है? इतनी रात को लाइट चलकर क्या कर रही है? सो जा! इतना पढ़ना ठीक नहीं आदि आदि! अर्द्धनिद्रावस्था में भी  मेरी माँ को बच्चो के चिंता लगी रहती है।
जैसे-जैसे ये लेख खत्म हो रहा है वैसे –वैसे मुझे अपने कमरे कि गर्मी का अहसास हो रहा है। बाहर कितनी ठंडी हवा है और अंदर पंखा भी गरम हवा दे रहा है। बाहर प्रकृति की  गोद है, उसका सौन्दर्य है, उसकी ठंडक है और अंदर आधुनिकता व उपभीगवाद की, मोह माया की गर्मी है।

(लेखिका राम मनोहर लोहिया विधि विश्वविद्यालय, लखनऊ में अध्ययनरत हैं)

सोमवार, 13 जनवरी 2014

कुछ सपने


- रवि मीणा 














कुछ स्वप्न अभी भी अनदेखे,
कुछ लक्ष्य अभी भी आधे हैं,
बहुत जटिल है दुनियादारी,
हम तो सीधे-साधे हैं,
कुछ कहते हैं,
मत विस्तार करो, पछताओगे,


देखा तो पाया-
सब के सब कच्चे धागे हैं;
मैं गड्ढ़े से धरती पर आया हूँ,
अम्बर में उड़ना चाहता हूँ|

मैं मेंढक सा ज्ञानी हूँ,
आकाश बराबर
ज्ञान जुटाना चाहता हूँ|
कुछ कहते हैं,
मत उछलो, गिर जाओगे,
देखा तो पाया,
सब मनमौजी
गिरते-पड़ते साकी हैं,
कुछ स्वप्न अभी भी अनदेखे,
कुछ लक्ष्य अभी भी बाकी हैं|

(लेखक आई आई टी कानपुर में द्वितीय वर्ष के छात्र हैं)


किरदार : सारी कहानियाँ एक साथ














किरदार श्रृंखला की सभी कहानियों को सुनने के लिए यहाँ नीचे दी गयी लिंक पर जाएं-

https://soundcloud.com/hindi_sahitya_sabha


बारूद- मुट्ठी भर



बारूद की फैक्ट्री में गोले बनाये जा रहे थे| कुछ किसी पर आग बरसाने के लिए तो कुछ चट्टानें तोड़ने के लिए| बारूद का हर कण खुश था अपनी किस्मत पर, और होता भी क्यों नहीं! उसे एक मंच जो मिल गया था अपनी ऊर्जा, अपना अस्तित्त्व सिद्ध करने के लिए|

फैक्ट्री में विस्फोटक बनाने का काम बढता जा रहा था| रोज़ नई बारूद आ रही थी, नए अन्वेषण हो रहेथे| इसी बीच एक मुट्ठी बारूद बिखरकर दूर गिर गयी थी| हवा का हर एक झोंका उस मुठ्ठी भर बारूद को उसके गंतव्य तक पहुँचाने की कोशिश कर रहा था। लेकिन बारूद पहचान नहीं पा रहा था अपनी ऊर्जा को, अपने आप को| हवा के अनगिनत झोंके उस के पास से गुजर गए लेकिन बारूद इन सबसे बेखबर रहा|

एक रोज तेज बरसात हुई। मुट्ठी भर बारूद भीग गया। और दूसरी तरफ कुछ बारूद गोले में तब्दील हो चुकी थी- अपने आप को साबित करने के लिए! 

कल शाम भी



- शशांक शेखर 

कल शाम भी तो गुजरे थे इस राह से ,
पर तब ये इतनी हसीन न थी,
तुम आये और तुमने मुस्कुरा क्या दिया,
कि देखो पत्ते भी कैसे खिलखिलाने लगे ...

कल शाम के बाद भी रात आयी थी,
पर तब ये आसमान सूना सा था,
तुमने चेहरे से जुल्फे हटा क्या दी,
कि ये तारे भी कैसे टिमटिमाने लगे..



कल शाम भी तो गुजरा था इस पेड़ के नीचे,
पर तब ये पंछी तो गुमसुम खामोश थे ,
तुमने बातों से मुझको चिढ़ा क्या दिया,
कि देखो ये सब भी कैसे गुनगुनाने लगे..

कल रात भी तो इसी कप में कॉफी पी थी,
पर तब तो ये एकदम फीकी लगी,
तुमने आँखों से मीठा घुला क्या दिया,
कि देखो खुशबू ये कैसी बहाने लगी....

कल रात भी तो मै तनहा सा था,
पर दिल में कोई खलिश तो न थी,
तुम आये और शामों को सजा क्या दिया,
कि ये दूरी है फिर से सताने लगी..

कल रात भी तो कलम उठाया था मैंने,
पर तब तो शायरी भी मुझसे खफा सी थी,
तुमने हाथो में हाथ थमा क्या दिया ,
कि मेरी बातें भी गजलें है गाने लगी...

( लेखक आई आई टी कानपुर में चतुर्थ वर्ष के छात्र हैं )


रविवार, 12 जनवरी 2014

क्षेत्रवाद : आखिर क्यों?



- सुरभि करवा


जोधपुर छोड़ कर यहाँ लखनऊ में रहते हुए 3 महीने हो गए हैं पर एक बार भी विश्वविद्यालय की सीमा से एक कदम तक बाहर नहीं रखा। शायद एक अजीब सा डर था। नया शहर, नई गलियाँ, सब कुछ ही तो नया था। डर था नए रास्तो पर खो जाने का! डर था अपने लड़की होने का! डर था कुछ ऐसी राहों पर चल पड़ने का जहां से वापस आना संभव नहीं! कुछ जानती भी तो कहाँ थी? पहले कभी उत्तर प्रदेश नहीं आयी थी। लखनऊ का बस इतना सा परिचय था कि नवाबों का एक शहर है और उत्तर-प्रदेश की राजधानी भी है।

आज बाहर निकली। एहसास हुआ कुछ भी तो नया नहीं हैं। सब कुछ तो वही है। वैसी ही सड़केंवैसी ही गलियाँ और वैसे ही लोग। वही भीड़ है, वही कचरे के ढेर से झाँकती थोड़ी-थोड़ी सुंदरता, वही यातायात के नियमों का टूटना, वही अक्टूबर का महीना और वही भीनी-भीनी ठंड।

इन्हीं ख्यालों में मैंने लखनऊ और जोधपुर में समानता ढूंढनी शुरू कर दी। ख्यालों की इस लड़ाई ने मुझे एक प्रश्न पर लाकर खड़ा कर दिया कि क्यों हम क्षेत्र के नाम पर लड़ते रहते हैं जबकि सभी जगहों, शहरों राज्यों में एक मूलभूत समानता हैं।

किसी अलग तरह के व्यक्ति या वस्तु को देख कर एक अजीब सी बेचैनी होना, एक अजीब सा डर पैदा होना जायज़ हैं। पर यह जानते हुए कि अंततः हम सब में एक आधारभूत समानता हैं- ये बेचैनी, ये डर नाजायज़ हो जाता हैं, बेईमानी हो जाता हैं।

आखिर क्यों क्षेत्रवाद के ताले हमारे मस्तिष्क को जकड़ लेते हैं और हम इस समानता को नहीं देख पाते? मैं जवाहर लाल नेहरू की उस बात में काफी यकीन रखती  हूँ जब वे कहते हैं कि सारा भारत एकता के एक सूत्र से, एक धागे से बंधा हैं। क्या हम इतनी छोटी सोच रखते हैं कि किसी के अलग पहनावे, अलग भाषा, अलग लहज़े, अलग तहज़ीब को देख कर उससे कन्नी काटने लगे? यहाँ तक कि उसे बुरा समझने लगे? आखिर क्योंआखिर कब तक?

( लेखिका राम मनोहर लोहिया राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, लखनऊ में अध्ययनरत हैं )

बुधवार, 1 जनवरी 2014

मकड़ी का जाला



- अभिलाषा सिंह 

आधुनिकता के जाले बुनते हैं
मकड़ी समान इंसान,
इस दुनिया में उलझते हैं
कुछ जाले आसमान में,
भूल जाते हैं लेकिन 
कि ये सब धूल है,
खो जाते हैं इसमे
ढूंढते हुए नए आकाश।



पर कुछ समय बाद
यही खोना
एक तीखा काँटा बन जाता है। 

(लेखिका राम मनोहर लोहिया विधि विश्वविद्यालय में अध्ययनरत हैं)