- शशांक शेखर
कल शाम भी तो गुजरे
थे इस राह से ,
पर तब ये इतनी हसीन
न थी,
तुम आये और तुमने
मुस्कुरा क्या दिया,
कि देखो पत्ते भी
कैसे खिलखिलाने लगे ...
कल शाम के बाद भी
रात आयी थी,
पर तब ये आसमान सूना
सा था,
तुमने चेहरे से
जुल्फे हटा क्या दी,
कि ये तारे भी कैसे
टिमटिमाने लगे..
कल शाम भी तो गुजरा
था इस पेड़ के नीचे,
पर तब ये पंछी तो
गुमसुम खामोश थे ,
तुमने बातों से
मुझको चिढ़ा क्या दिया,
कि देखो ये सब भी
कैसे गुनगुनाने लगे..
कल रात भी तो इसी कप
में कॉफी पी थी,
पर तब तो ये एकदम
फीकी लगी,
तुमने आँखों से मीठा
घुला क्या दिया,
कि देखो खुशबू ये
कैसी बहाने लगी....
कल रात भी तो मै
तनहा सा था,
पर दिल में कोई खलिश
तो न थी,
तुम आये और शामों को
सजा क्या दिया,
कि ये दूरी है फिर
से सताने लगी..
कल रात भी तो कलम
उठाया था मैंने,
पर तब तो शायरी भी मुझसे
खफा सी थी,
तुमने हाथो में हाथ
थमा क्या दिया ,
कि मेरी बातें भी गजलें
है गाने लगी...
( लेखक आई आई टी कानपुर में चतुर्थ वर्ष के छात्र हैं )
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