शनिवार, 25 जनवरी 2014

रजाई


- निशांत सिंह 


कुछ बातें होती हैं
ढोल पर पहली थाप जैसी
अँधेरे को चीरती
हाथों से टटोलती
आगे बढ़ती हैं।

उनके पैर अंदर होते हैं
रजाई में
सिर्फ़ आँखें बाहर निकालकर
देख लेती हैं,
कर लेती हैं तफ्तीश ;
और तसल्ली हो जाये तो
इत्मीनान से
वापस ओढ़ लेती हैं
रजाई को खोल जैसे।

अंदर भी सिकुड़ती ही रहती होंगी !
अपनी पूंछ को
जीभ से मिलाये
सिमटी हैं,
देखो !

हाँ! लेकिन इतना है कि
अब ठिठुरती नहीं हैं
वो नंगी बातें !

कुछ बातें होती हैं
ढोल पर थाप जैसी।

(निशांत आई आई टी कानपुर में तृतीय वर्ष के छात्र हैं)

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