रविवार, 26 जनवरी 2014

द मेकिंग ऑफ़ महात्मा : एक समीक्षा

- आदित्य राज सोमानी

And why should you not fight in the course of Allah?
And raise for us from thee, one who will protect.
और अल्लाह ने गाँधी को भेज दिया.

फिल्म की शुरुआत चाहे जहाँ से हो गाँधी की शुरुआत यही से होती है. रजित कपूर अपनी शांत और धैर्य भरी आँखों से जब ये दो पंक्तियां कुरान से पढेंगे तो मानो लगेगा की कृष्ण गीता का पाठ कर रहे हों. कहानी में इस समय तक बस एक दुबला पतला पतली मुछो वाला नौजवान दिख रहा होगा. जिसका नाम मोहन दास है. पर अब इस कहानी में चाहकर भी आप गाँधी को नजर अंदाज नहीं कर पाएँगे. हाँ शायद आपका भी मन कर जाए की इस फिल्म के पोस्टर को एक बार फिर देखें. The making of mahatma. मुझे हालाँकि इस शीर्षक से कुछ दिक्कते हैं, क्योंकि ये कहानी महात्मा के नहीं; गाँधी के बनने की है. आप और हम शायद अपने अंतिम नाम के लिए बचपन से ही सार्थक रहे होंगे पर गाँधी को गाँधी बनना पड़ा. तो ये कहानी है उस समय की जब मोहनदास पहली बार अफ्रीका गए.

श्याम बेनेगल ने तथ्यों के साथ नाइंसाफी किये बिना इस फिल्म को अपनी सीमा तक रोचक बना दिया है. फिल्म चूँकि पुरानी है इसलिए कई जगह हमें ये लग सकता है की यहाँ कुछ बेहतर हो सकता है. पर विश्वास मानिये वो नहीं हो सकता. श्याम बेनेगल ने कहनी की सूत्रधार बनाया है कस्तूर गाँधी को, पल्लवी जोशी को. पल्लवी जोशी एक बार सोंच में उतरने के बाद नहीं भुलाई जा सकतीं. क्योंकि वो आज की या समकालीन सुप्रसिद्ध और खुबसूरत अभिनेत्रियों की तरह सिर्फ नजरो में नहीं उतरतीं. हालाँकि सादगी उनके किरदार की जरूरत थी, पर फिर भी ये मानने का मन नहीं करता की वो इससे कुछ भी भिन्न होंगीं. पल्लवी जोशी और रजित कपूर आँखों से इतना कुछ कह देते हैं की श्याम बेनेगल की फिल्मो में स्क्रिप्ट राइटर की अहमियत ही पता नहीं चलती. पर ये फिल्म कुछ अलग है. हर दुसरे मिनट एक ऐसा संवाद आएगा की आपको लगेगा जीवन का पूरा गूढ़ रहस्य उंढेल दिया गया है. गाँधी के विकास और सोंच को जिस सुनियोजित क्रम से फातिमा मीर ने पिरोया है वो एक क्रांति के विकास का पूरा साहित्य है. आन्दोलनों का बनना बिगड़ना, सफलताएँ असफलताएँ, लोगों का साथ विरोध, धैर्य और संघर्ष; जॉन रस्किन के आश्रम का एक खुबसूरत जमीनीकरण और समाचार पत्र का हथियार के रूप में सामने आना इस साहित्य की खूबसूरती है. अफ्रीका के समकालीन राजनीतिक और सामजिक परिवेश पर किया गया गहन शोध आप साफ़ देख पाएँगे.

पर ये सब कुछ नया नहीं है. हजारो बार कहा जा चुका है पढ़ा जा चुका है. तो फिर नया क्या है. नया है गाँधी का घर. कस्तूर और मोहनदास की एक अनोखी सी प्रेम कथा जिसका निर्धारण अफ्रीका की परस्थितियाँ कर रही थी. गाँधी और उनके बच्चो के संवाद जो आंदोलनों के बनने और बिगड़ने के साथ बदल रहे थे और गांधी का असफल पारिवारिक जीवन जो हर विद्रोही या क्रन्तिकारी का सपना हो सकता है. इस पूरी फिल्म में जहाँ एक और अफ्रीका के भारतीय, समाज में परिवर्तित हो रहे थे , मोहनदास गाँधी में ढल रहे थे वहीँ कस्तूर कस्तूरबा बन रहीं थीं. एक साधारण भारतीय घरेलु महिला जो अपने परिवार और पति से प्रेम करती है और उनके लिए अपना जीवन कुर्बान करने को तैयार है फिल्म के अंत तक सिर्फ गाँधी पर समर्पित हो जाती है. इस फिल्म के अंत तक आपको कस्तूर गाँधी यानि की पल्लवी जोशी से प्यार हो जाएगा. और कही न कहीं कस्तूर के जीवन के सभी संकटों के लिए गांधी को आप दोषी पाएँगे.

इस पूरी फिल्म में आपको पार्श्व में एक संगीत बजता सुनाई देगा. वनराज भाटिया ने बेहद खूबसूरती के साथ इसे हर जगह बाँधा है. यदि आप इन बारीकियों पर ध्यान देने वालों में से हैं तो मैं आपको बता दूँ की हर बार जब ये संगीत बजेगा तो आपको लग सकता है की ये सारे जहाँ से अच्छा की धुन है या शायद जन गन मन की पर फिल्म के अंत में आप जानेंगे की ये संगीत गाँधी के कितने करीब है. 

पर इस कहानी में और भी कुछ है जो अभी कहना बचा है. जो कहना जरूरी भी है. गाँधी के आन्दोलन और उनकी सफलताओं की केवल एक वजह ही आपको दिखाई देगी और वो है विश्वास, प्रेम और प्रयोग. बेशक त्याग के बिना ये सब कुछ नहीं किया जा सकता था पर सफलता केवल इन्ही वजहों से मिली. अपने सिद्धांतो के साथ समझौता ना करना और धैर्य के साथ अटल रहने के अलावा ये फिल्म आपको पोलिटिकल एक्टिविज्म की जरूरत बताएगी. इस फिल्म को देख कर भी यदि कुछ करने का मन ना हो तो मैं कहूँगा की आप समझदार हैं. क्योंकि विद्रोही इतने समझदार नहीं होते, तभी तो दुनिया बदल देते हैं. 

बहुत कुछ और भी कहा जा सकता है पर पूरा नहीं. ये फिल्म विचारों और कला से परिपूर्ण एक अद्भुत अनुभूति है. तो जाइए फिल्म देखिये या मुझसे ले जाइये और कुछ करने के लिए हाथ बढाइये। 

(लेखक आई आई टी कानपूर में द्वितीय वर्ष के छात्र हैं)

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