शुक्रवार, 21 मार्च 2014

पल दो पल आँख मिला जाना


(चित्र- द वर्ल्ड अपसाइड डाउन, इस्राहेल वान मेक्केनेम द्वारा)
रस्ते में जाते देखा था 
खिड़की से तुमको,
सोचा था मुझसे मिलने 
आज चली आई हो,
होकर पागल ख़ुशी-ख़ुशी में, 
मैनें सांकल खोल दिया था,
आज तलक नहीं आई तुम, 
पर दिल का द्वार खुला है अब तक,
आ जाओ, मिलना मत, 
बस दरवाजे को बाहर की तरफ लगा जाना,
बातें मत करना चाहे, 
बस पल दो पल आँख मिला जाना|

पंखे के नीचे लहराती तेरी 
चुन्नी को जब-जब देखा था,
तब-तब भूल विषय कक्षा का 
तुम पर नज़र गड़ा ली,
सखियों के संग आँखें झुकी होने पर भी 
कोई बात सुना डाली,
मालूम है बहुत बुरा लगता था तुमको ये सब,
तो आ जाओ इस अपराधी को 
कुछ सजा सुना जाना,
बातें मत करना चाहे, 
बस पल दो पल आँख मिला जाना|

बहुत की थी कोशिश मैंने तो 
तेरा नंबर पाने की,
तुमने सब पर रोक लगा डाली 
बस दस अक्षर बतलाने की,
मजबूरी में ख़त लिख डाले 
इच्छा जो थी धड़कन को बतलाने की,
आज तलक मैं भेज ना पाया, 
शंका थी किसी और के हाथ लगाने की,
अब वो पीले-पन्ने कमरे में उड़ते हैं 
इधर-उधर, आकर पढ़ जाना,
बातें मत करना चाहे, 
बस पल दो पल आँख मिला जाना|

गुरुवार, 6 मार्च 2014

राग दरबारी: कुछ विचार

- निशांत सिंह 

मैंने सुना है कि मुक्तिबोध जब किसी से मिलते थे तो हाल चाल पूछने के लिए कहते थे कि “भाई! आज कल तुम्हारी राजनीति कैसी है?” बेशक, भारतीय समाज में राजनीति रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा है| महाभारत के विषय में कहा गया है जो भारत में है वही महाभारत में है, जो महाभारत मैं नहीं, वो भारत में भी नहीं| और महाभारत तो विशुद्ध राजनीतिक कथा है, जिसका हर प्रसंग कथा के राजनीतिक घनत्व में योगदान करता है|


गाँव में प्रपंचों-पंचायतों वाली राजनीतिक का विशुद्ध व्यंग्यपूर्ण प्रतुतिकरण है-“राग दरबारी”| कथानक गाँव के बाहर से आपको खींचकर गाँव के अन्दर ले जाने से शुरू होता है-

शहर का किनारा| उसे छोड़ते ही भारतीय देहात का महासागर शुरू हो जाता था| वहीँ एक ट्रक खड़ा था| उसे देखते ही यकीन हो जाता था कि इसका जन्म केवल सडकों के साथ बलात्कार करने के लिए हुआ है| .... सड़क के एक ओर पेट्रोल पंप था; दूसरी ओर छप्परों, लकड़ी और टीन के सड़े हुए टुकड़ों और स्थानीय क्षमता के अनुसार निकलने वाले कबाड़ के मदद से खाड़ी की हुई दुकानें थीं|.... प्रायः सभी में जनता का मनपसंद पेय मिलता था जिसे वहां गर्द, चीकट, चाय की कई बार इस्तेमाल हुई पत्ती और और खुलते पानी आदि के सहारे बनाया जाता था| .... कूड़े को स्वादिष्ट खाने में बदलने की तरकीब पूरी दुनिया में सिर्फ हमें ही आती है|”

श्रीलाल शुक्ल द्वारा लिखे गए इस उपन्यास को साहित्य अकादमी सहित कई अन्य महत्वपूर्ण सम्मान मिले हैं| उत्तर प्रदेश के किसी गाँव शिवपालगंज में इसे स्थापित किया गया है| इस गाँव के रहने वाले, जो स्वयं को गँजहा कहते हैं, हम में से किसी न किसी के चरित्र को निभाते मिलते हैं| एक चरित्र है रंगनाथ| यह उस शहरी और पढ़े लिखे युवक समुदाय का प्रतिनिधि है जो गाँव की राजनीतिक संस्कृति के बीच “एलीयनेटेड” महसूस करता है; सोचता है कि शहर कितना आगे बढ़ गए हैं और गाँव वाले अभी भी सदियों पुराने चकल्लसों में ही फँसे हुए हैं| एक अन्य चरित्र है वैद्यजी का; यकीन मानिए दोगलेपन और दबंगई (जिसे घाघपन भी कह सकते हैं) का ऐसा अनूठा चित्रण आपको कहीं नहीं मिलेगा| संस्कृत के श्लोकों का यथास्थिति उपयोग, पूरे गाँव पर अप्रत्यक्ष रूप से नियंत्रण, पुलिस वगैरह से लेकर स्कूल वगैरह तक सबकुछ उनके हाथ की मुट्ठी में ; वैधजी सीधे सीधे तौर पर गँजहों के गॉडफादर” |
वैधजी के दो बेटे भी हैं:- वो भी छलबल राजनीति के ज्ञाता, एक छल वादी, दूसरा बल वादी| तमाम अन्य चरित्र हैं, जो गाँव के अन्दर ही अलग-अलग राजनीतिक दंगलों में ज़ोर-आजमाइश करते मिलते हैं| पूरे उपन्यास की समीक्षा इस लेख के दायरे से बाहर है| हम इसके उस हिस्से कि बात करते हैं, जहाँ युवा, कॉलेज और राजनीति एक साथ केन्द्रित होते हैं|

गँजहों के गाँव में एक सरकारी विद्यालय है, उसका नक्शा देखिये -

“ दो बड़े और छोटे कमरों का एक डाकबँगला था जिसे डिस्ट्रिक्ट बोर्ड ने छोड़ दिया था। उसके तीन ओर कच्ची दीवारों पर छ्प्पर डालकर कुछ अस्तबल बनाये गये थे। अस्तबलों से कुछ दूरी पर पक्की ईंटों की दीवार पर टिन डालकर एक दुकान-सी खोली गयी थी। एक ओर रेलवे-फाटक के पास पायी जाने वाली एक कमरे की गुमटी थी। दूसरी ओर एक बड़े बरगद के पेड़ के नीचे एक कब्र-जैसा चबूतरा था। अस्तबलों के पास एक नये ढंग की इमारत बनी थी जिस पर लिखा था, 'सामुदायिक मिलन-केन्द्र , शिवपालगंज।' इन्हीं सब इमारतों के मिले-जुले रुप को छंगामल विद्यालय इण्टरमीजिएट कालिज, शिवपालगंज कहा जाता था। यहाँ से इण्टरमीजिएट पास करने वाले लड़के सिर्फ़ इमारत के आधार पर कह सकते थे कि हम शांतिनिकेतन से भी आगे हैं; हम असली भारतीय विद्यार्थी हैं;हम नहीं जानते कि बिजली क्या है, नल का पानी क्या है; पक्का फ़र्श किसको कहते हैं ; सैनिटरी फिटिंग किस चिड़िया का नाम है। हमारे इतना पढ़ लेने पर भी हमारा पेशाब पेड़ के तने पर ही उतरता है |”

अब, ये पंक्तियाँ पढ़िए-

“ देश में इंजीनियरों और डॉक्टरों की कमी है। कारण यह है कि इस देश के निवासी परम्परा से कवि हैं। चीज़ को समझने के पहले वे उस पर मुग्ध होकर कविता कहते हैं। भाखड़ा-नंगल बाँध को देखकर वे कहते हैं, "अहा! अपना चमत्कार दिखाने के लिए, देखो, प्रभु ने फिर से भारत-भूमि को ही चुना।" ऑपरेशन -टेबल पर पड़ी हुई युवती को देखकर वे मतिराम-बिहारी की कविताएँ दुहराने लग सकते हैं।
भावना के इस तूफ़ान के बावजूद, और इसी तरह की दूसरी अड़चनों के बावजूद, इस देश को इंजीनियर पैदा करने हैं, डाक्टर बनाने हैं।
और ये है कक्षाओं की स्थिति-
“ साइंस का क्लास लगा था। नवाँ दर्जा। मास्टर मोतीराम, जो एक अरह बी.एस-सी. पास थे, लड़कों को आपेक्षिक घनत्व पढ़ा रहे थे।...सड़क पर ईख से भरी बैलगाड़ियाँ शकर मिल की ओर जा रही थीं। कुछ मरियल लड़के पीछे से ईख खींच-खींचकर भाग रहे थे। आगे बैठा हुआ गाड़ीवान खींच-खींचकर गालियाँ दे रहा था। गालियों का मौलिक महत्व आवाज़ की ऊँचाई में है, इसीलिए गालियाँ और जवाबी गालियाँ एक- दूसरे को ऊँचाई पर काट रही थीं। लड़के नाटक का मज़ा ले रहे थे, साइंस पढ़ रहे थे।

एक लड़के ने कहा , "मास्टर साहब, आपेक्षिक घनत्व किसे कहते हैं ?"
 वे बोले, "आपेक्षिक घनत्व माने रिलेटिव डेंसिटी।"
एक दूसरे लड़के ने कहा, "अब आप, देखिए , साइंस नहीं अंग्रेजी पढ़ा रहे हैं।"
वे बोले, "साइंस साला अंग्रेजी के बिना कैसे आ सकता है?"
लड़कों ने जवाब में हँसना शुरु कर दिया। हँसी का कारण हिन्दी -अंग्रेजी की बहस नहीं , 'साला' का मुहावरेदार प्रयोग था।
वे बोले, "यह हँसी की बात नहीं है। "
लड़कों को यक़ीन न हुआ। वे और ज़ोर से हँसे। इस पर मास्टर मोतीराम खुद उन्हीं के साथ हँसने लगे। लड़के चुप हो गये। ..."रिलेटिव डेंसिटी नहीं समझते हो तो आपेक्षिक घनत्व को यों-दूसरी तरकीब से समझो। आपेक्षिक माने किसी के मुक़ाबले का। मान लो, तुमने एक आटाचक्की खोल रखी है और तुम्हारे पड़ोस में तुम्हारे पड़ोसी ने दूसरी आटाचक्की खोल रखी है। तुम महीने में उससे पाँच सौ रुपया पैदा करते हो और तुम्हारा पड़ोसी चार सौ। तो तुम्हें उसके मुक़ाबले ज़्यादा फायदा हुआ। इसे साइंस की भाषा में कह सकते हैं कि तुम्हारा आपेक्षिक लाभ ज़्यादा है। समझ गये?" ....
..."आपेक्षिक घनत्व निकालने के लिए उस चीज़ का वजन और आयतन यानी वॉल्यूम जानना चाहिए -उसके बाद आपेक्षिक घनत्व निकालने का तरीका जानना चाहिए। जहाँ तक तरीके की बात है, हर चीज के दो तरीके होते हैं। एक सही तरीका, एक गलत तरीका। सही तरीके का सही नतीजा निकलता है, ग़लत तरीके का गलत नतीजा।“

विद्यालय के प्रधानाचार्य से भी मिल लीजिये-

दिन के चार बजे प्रिंसिपल साहब अपने कमरे से बाहर निकले। दुबला-पतला जिस्म, उसके कुछ अंश ख़ाकी हाफ़ पैंट और कमीज़ से ढके थे। पुलिस सार्जेंटोंवाला बेंत बगल में दबा था। पैर में सैंडिल। कुल मिलाकर काफी चुस्त और चालाक दिखते हुए; और जितने थे, उससे ज़्यादा अपने को चुस्त और चालाक समझते हुए।
उनके पीछे-पीछे हमेशा की तरह, कॉलिज का क्लर्क चल रहा था। प्रिंसिपल साहब की उससे गहरी दोस्ती थी।
वे दोनों मास्टर मोतीराम के दर्जे के पास से निकले। दर्जा अस्तबलनुमा इमारत में लगा था। दूर ही से दिख गया कि उसमें कोई मास्टर नहीं है। एक लड़का नीचे से जाँघ तक फटा हुआ पायजामा पहने मास्टर की मेज पर बैठा रो रहा था। प्रिंसिपल को पास से गुजरता देख और ज़ोर से रोने लगा। उन्होंने पूछा , " क्या बात है? मास्टर साहब कहाँ गये हैं?"
वह लड़का अब खड़ा होकर रोने लगा। एक दूसरे लड़के ने कहा , " यह मास्टर मोतीराम का क्लास है।" फिर प्रिंसिपल को बताने की जरुरत नहीं पड़ी कि मास्टर साहब कहाँ गये। क्लर्क ने कहा , "सिकण्डहैण्ड मशीन चौबीस घण्टे निगरानी माँगती है। कितनी बार मास्टर मोतीराम से कहा कि बेच दो इस आटाचक्की को, पर कुछ समझते ही नहीं हैं। मैं खुद एक बार डेढ़ हजार रुपया देने को तैयार था।"
प्रिंसिपल साहब ने क्लर्क से कहा, "छोड़ो इस बात को! उधर के दर्जे से मालवीय को बुला लाओ।"
क्लर्क ने एक लड़के से कहा, " जाओ, उधर के दर्जे से मालवीय को बुला लाओ। "
थोड़ी देर में एक भला-सा दिखनेवाला नौजवान आता हुआ नजर आया। प्रिंसिपल साहब ने उसे दूर से देखते ही चिल्लाकर कहा, "भाई मालवीय, यह क्लास भी देख लेना।"
मालवीय नजदीक आकर छप्पर का एक बाँस पकड़कर खड़ा हो गया और बोला, " एक ही पीरियड में दो क्लास कैसे ले सकूँगा?"
रोनेवाला लड़का रो रहा था। क्लास के पीछे कुछ लड़के जोर-जोर से हँस रहे थे।
बाकी इन लोगों के पास कुछ इस तरह भीड़ की शक्ल में खड़े हो गये थे जैसे चौराहे पर ऐक्सिडेंट हो गया हो।
प्रिंसिपल साहब ने आवाज तेज करके कहा, " ज्यादा कानून न छाँटो। जब से तुम खन्ना के साथ उठने-बैठने लगे हो, तुम्हें हर काम में दिक्कत मालूम होती है।"

मालवीय प्रिंसिपल साहब का मुँह देखता रह गया। क्लर्क ने कहा, "सरकारी बसवाला हिसाब लगाओ मालवीय। एक बस बिगड़ जाती है तो सब सवारियाँ पीछे आनेवाली दूसरी बस में बैठा दी जाती हैं। इन लड़कों को भी वैसे ही अपने दर्जे में ले जाकर बैठा लो। "
उसने बहुत मीठी आवाज में कहा, "पर यह तो नवाँ दर्जा है। मैं वहाँ सातवें को पढ़ा रहा हूँ। "
प्रिंसिपल साहब की गरदन मुड़ गयी। समझनेवाले समझ गये कि अब उनके हाथ हाफ़ पैंट की जेबों में चले जायेंगे और वे चीखेंगे। वही हुआ। वे बोले, ".. हमका अब प्रिंसिपली करै न सिखाव भैया। जौनु हुकुम है, तौनु चुप्पे कैरी आउट करौ। समझ्यो कि नाहीं?"
प्रिंसिपल साहब पास के ही गाँव के रहने वाले थे। दूर-दूर के इलाकों में वे अपने दो गुणों के लिए विख्यात थे। एक तो खर्च का फर्जी नक्शा बनाकर कॉलिज के लिए ज्यादा-से- ज्यादा सरकारी पैसा खींचने के लिए, दूसरे गुस्से की चरम दशा में स्थानीय अवधी बोली का इस्तेमाल करने के लिए। जब वे फर्जी नक्शा बनाते थे तो बड़ा-से-बड़ा ऑडीटर भी उसमें कलम न लगा सकता था; जब वे अवधी बोलने लगते थे तो बड़ा-से -बड़ा तर्कशास्त्री भी उनकी बात का जवाब न दे सकता था।

अब देखिये छंगामल विद्यालय की गुटबाजी -

“ खन्ना मास्टर का असली नाम खन्ना था। वैसे ही, जैसे तिलक, पटेल , गाँधी, नेहरु-आदि हमारे यहाँ जाति के नहीं, बल्कि व्यक्ति के नाम हैं। इस देश में जाति-प्रथा को खत्म करने की यही एक सीधी-सी तरकीब है। जाति से उसका नाम छीनकर उसे किसी आदमी का नाम बना देने से जाति के पास और कुछ नहीं रह जाता। वह अपने -आप ख़त्म हो जाती है। खन्ना मास्टर इतिहास के लेक्चरार थे, पर इस वक्त इण्टरमीजिएट के दर्जे में अंग्रेजी पड़ा रहे थे। वे दाँत पीसकर कह रहे थे , " हिन्दी में तो बड़ी -बड़ी प्रेम-कहानियाँ लिखा करते हो पर अंग्रेजी में कोई जवाब देते हुए मुँह घोडे़-जैसा लटक जाता है।"
एक लड़का दर्जे में सिर लटकाये खड़ा था। वैसे तो घी-दूध की कमी और खेल -कूद की तंगी से हर औसत विद्यार्थी मरियल घोड़े-जैसा दिखता है, पर इस लड़के के मुँह की बनावट कुछ ऐसी थी कि बात इसी पर चिपककर रह गयी थी। दर्जे के लड़के जोर से हँसे। खन्ना मास्टर ने अंग्रेजी में पूछा, "बोलो, 'मेटाफर' का क्या अर्थ है?"
लड़का वैसे ही खड़ा रहा। ....घुमा-फिराकर इन देहाती लड़कों को फिर से हल की मूठ पकड़ाकर खेत में छोड़ देने की राय दी जा रही थी। पर हर साल फेल होकर, दर्जे में सब तरह की डाँट-फटकार झेलकर और खेती की महिमा पर नेताओं के निर्झरपंथी व्याख्यान सुनकर भी वे लड़के हल और कुदाल की दुनिया में वापस जाने को तैयार न थे। वे कनखजूरे की तरह स्कूल से चिपके हुए थे और किसी भी कीमत पर उससे चिपके रहना चाहते थे।
घोड़े के मुँहवाला यह लड़का भी इसी भीड़ का एक अंग था ; दर्जे में उसे घुमा -फिराकर रोज-रोज बताया जाता कि जाओ बेटा, जाकर अपनी भैंस दुहो और बैलों की पूँछ उमेठो; शेली और कीट्स तुम्हारे लिए नहीं हैं। पर बेटा अपने बाप से कई शताब्दी आगे निकल चुका था और इन इशारों को समझने के लिए तैयार नहीं था।

कॉलिज के हर औसत विद्यार्थी की तरह यह लड़का भी पोशाक के मामले में बेतकल्लुफ था। इस वक्त वह नंगे पाँव, एक ऐसे धारीदार कपड़े का मैला पायजामा पहने हुए खड़ा था जिसे शहरवाले प्रायः स्लीपिंग सूट के लिए इस्तेमाल करते हैं। वह गहरे कत्थई रंग की मोटी कमीज़ पहने था, जिसके बटन टूटे थे। सिर पर रुखे और कड़े बाल थे। चेहरा बिना धुला हुआ और आँखें गिचपिची थीं। देखते ही लगता था, वह किसी प्रोपेगैंडा के चक्कर में फँसकर कॉलिज की ओर भाग आया है।
लड़के ने पिछले साल किसी सस्ती पत्रिका से एक प्रेम-कथा नकल करके अपने नाम से कॉलिज की पत्रिका में छाप दी थी। खन्ना मास्टर उसकी इसी ख़्याति पर कीचड़ उछाल रहे थे। उन्होंने आवाज बदलकर कहा, " कहानीकार जी, कुछ बोलिए तो, मेटाफर क्या चीज होती है?"
लड़के ने अपनी जाँघें खुजलानी शुरु कर दीं। मुँह को कई बार टेढ़ा-मेढ़ा करके वह आखिर में बोला , "जैसे महादेवीजी की कविता में वेदना का मेटाफर आता है----। "
खन्ना मास्टर ने कड़ककर कहा, "शट-अप! यह अंग्रेजी का क्लास है।" लड़के ने जाँघें खुजलानी बन्द कर दीं। ...लड़के को वे कुछ और कहने जा रहे थे , तभी उन्होंने क्लास के पिछले दरवाजे पर प्रिंसिपल साहब को घूरते पाया। वे मेज़ का सहारा छोड़कर सीधे खड़े हो गये और बोले, "जी , शेली की एक कविता पढ़ा रहा था। "
प्रिंसिपल ने एक शब्द पर दूसरा शब्द पर दूसरा शब्द लुढ़काते हुए तेज़ी से कहा, " पर आपकी बात सुन कौन रहा है? ये लोग तो तस्वीरें देख रहे हैं।"
वे कमरे के अन्दर आ गये। बारी-बारी से दो लड़कों की पीठ में उन्होंने अपना बेंत चुभोया। वे उठकर खड़े हो गये। एक गन्दे पायजामे, बुश्शर्ट और तेल बहाते हुए बालोंवाला चीकटदार लड़का था; दूसरा घुटे सिर , कमीज और अण्डरवियर पहने हुए पहलवानी धज का। प्रिंसिपल साहब ने उनसे कहा, "यही पढ़ाया जा रहा है?"
झुककर उन्होंने पहले लड़के की कुर्सी से एक पत्रिका उठा ली। यह सिनेमा का साहित्य था। एक पन्ना खोलकर उन्होंने हवा में घुमाया। लड़कों ने देखा, किसी विलायती औरत के उरोज तस्वीर में फड़फड़ा रहे हैं। उन्होंने पत्रिका जमीन पर फेंक दी और चीखकर अवधी में बोले, "यहै पढ़ि रहे हौ?"
कमरे में सन्नाटा छा गया। 'महादेवी की वेदना ' का प्रेमी मौका ताककर चुपचाप अपनी सीट पर बैठ गया। प्रिंसिपल साहब ने क्लास के एक छोर से दूसरे छोर पर खड़े हुए खन्ना मास्टर को ललकारकर कहा, " आपके दर्जे में डिसिप्लिन की यह हालत है! लड़के सिनेमा की पत्रिकाएँ पढ़ते हैं! और आप इसी बूते पर जोर डलवा रहे हैं कि आपको वाइस प्रिंसिपल बना दिया जाये! इसी तमीज से वाइस प्रिंसिपली कीजियेगा! भइया, यहै हालु रही तौ वाइस प्रिंसिपली तो अपने घर रही, पारसाल की जुलाई माँ डगर-डगर घूम्यौ।"
कहते -कहते अवधी के महाकवि गोस्वामी तुलसीदास की आत्मा उनके शरीर में एक ओर से घुसकर दूसरी ओर से निकल गयी। वे फिर खड़ी बोली पर आ गये, "पढ़ाई-लिखाई में क्या रखा है! असली बात है डिसिप्लिन ! समझे, मास्टर साहब?"

विद्यालय का प्रिंसिपल वैधजी के गुट का है, क्योंकि विद्यालय के मैनेजर तो वैधजी हैं| कुछ शिक्षक वैधजी के विरोधी हैं और इस तरह राजनीतिक गुटबंदी उत्पन्न होने के लिए ये आदर्श परिस्थिति है| और देखा जाए तो ये गुटबंदी भारतीय विद्यालयों की (सरकारी तो सभी और कई वित्तपोषी निजी की भी) प्रमुख विशेषता है-

छंगामल विद्यालय इण्टर कालेज की स्थापना 'देश के नव-नागरिकों को महान आदर्शो की ओर प्रेरित करने एवं उन्हें उत्तम शिक्षा देकर राष्ट्र का उत्थान करने हेतु' हुई थी। कालिज का चमकीले नारंगी कागज पर छपा हुआ 'संविधान एवं नियमावली' पढ़कर यथार्थ की गन्दगी में लिपटा हुआ मन कुछ वैसा ही निर्मल और पवित्र हो जाता था जैसे भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों का अध्याय पढ़कर।

क्योंकि इस कालिज की स्थापना राष्ट्र के हित मे हुई थी, इसलिए, उसमें और कुछ हो या नहीं, गुटबन्दी काफ़ी थी। वैसे गुटबन्दी जिस मात्रा में थी, उसे बहुत बढ़िया नहीं कहा जा सकता था; पर जितने कम समय में वह विकसित हुई, उसे देखकर लगता था काफ़ी अच्छा काम हुआ है। वह दो-तीन साल ही में पड़ोस के कालिजों की गुटबन्दी की अपेक्षा ज्यादा ठोस दिखने लगी थी। बल्कि कुछ मामलों में तो वह अखिल भारतीय संस्थाओ तक का मुकाबला करने लगी थी।
प्रबन्ध-समिति में वैद्यजी का दबदबा था, पर रामाधीन भीखमखेड़वी अब तक उसमें अपना गुट बना चुके थे। इसके लिए उन्हें बड़ी साधना करनी पड़ी। काफ़ी दिनों तक वे अकेले ही अपने गुट बने रहे, बाद में एकाध मेम्बर भी उनकी ओर खिंचे। अब बड़ी मेहनत के बाद कालिज के नौकरों मे दो गुट बन गये थे, पर उनमें अभी बहुत काम होना था। प्रिंसिपल साहब तो वैद्यजी पर पूरी तरह आश्रित थे, पर खन्ना मास्टर अभी उसी तरह रामाधीन के गुट पर आश्रित नही हो पाये थे। उन्हें खींचना बाकी था। लड़कों में भी अभी दोनों गुटो का हमदर्दी के आधार पर अलग-अलग गुट नहीं बने थे। उनमें आपसी गाली-गलौज और मारपीट होती तो थी, पर इन कार्यक्रमों को अभी तक उचित दिशा नहीं मिल पाती थी। गुटबन्दी के उद्देश्य से न होकर ये काम व्यक्तिगत कारणों से होते थे और इस तरह लड़कों की गुण्डागर्दी की शक्ति व्यक्तिगत स्वार्थो पर नष्ट होती जाती थी, उसका उपयोग राष्ट्र के सामूहिक हित में नही होता रहा था। गुटबन्दों को अभी इस दिशा में भी बहुत काम करना था।
यह सही है कि वैद्यजी को छोड़कर कालिज के गुटबन्दों में अभी अनुभव की कमी थी। उनमें परिपक्वता नहीं थी, पर प्रतिभा थी। उसका चमत्कार साल में एकाध बार जब फूटता, तो उसकी लहर शहर तक पहुचती। लोगों को इत्मीनान हो गया था कि यहां अब कालिज भले ही खत्म हो जाय, गुटबन्दी खत्म नहीं होगी।“


राग दरबारी के व्यंग्य चुटीले हैं| ग्रामीण विकास के लिए किए गए सरकारी प्रयासों की पोल खोलते हैं| कथानक ये सोचने पर भी विवश करता है कि क्या इस स्थिति में सत्ता का विकेंद्रीकरण और स्वराज के सिद्धांत सफल हो सकेंगे? वैसे यह प्रश्न विकेंद्रीकरण पर सबसे बड़ा स्केप्टिसिज्म है| गाँव या लोकल स्तर पर राजनीतिक निर्णयों को लेने की शक्ति का पहुंचना वैधजी, जैसे अप्रत्यक्ष नियंताओं के उपश्थिति रहते खतरनाक तो नहीं? लेकिन व्यक्तिगत तौर पर मेरा मानना है कि फिर भी यदि केंद्रीकृत संसदीय व्यवस्था के जितना समय, या उससे कम भी समय, विकेंद्रीकृत व्यवस्था को दिया गया, तो निश्चित रूप से परिणाम पहले की तुलना में अच्छे होंगे|