सोमवार, 30 जून 2014

" दोनों ओर प्रेम पलता है "


        - मैथिली शरण गुप्त                       





दोनों ओर प्रेम पलता है।
सखि, पतंग भी जलता है हा! दीपक भी जलता है!

सीस हिलाकर दीपक कहता-
'बन्धु वृथा ही तू क्यों दहता?'
पर पतंग पड़ कर ही रहता
कितनी विह्वलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है।


बचकर हाय! पतंग मरे क्या?
प्रणय छोड़ कर प्राण धरे क्या?
जले नही तो मरा करे क्या?
क्या यह असफलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है।


कहता है पतंग मन मारे-
'तुम महान, मैं लघु, पर प्यारे,
क्या न मरण भी हाथ हमारे?
शरण किसे छलता है?'
दोनों ओर प्रेम पलता है।


दीपक के जलनें में आली,
फिर भी है जीवन की लाली।
किन्तु पतंग-भाग्य-लिपि काली,
किसका वश चलता है?
दोनों ओर प्रेम पलता है।


जगती वणिग्वृत्ति है रखती,
उसे चाहती जिससे चखती;
काम नहीं, परिणाम निरखती।
मुझको ही खलता है।
दोनों ओर प्रेम पलता है।
 
       

शनिवार, 21 जून 2014

"कैसे हो तुम "

              

- रवि मीना


 


















कैसे हो तुम? बहुत दिनों से कोई सन्देश नहीं आया है,

बहुत लिखे ख़त मैंनें ही खुद, पर उत्तर अब तक नहीं पाया है|

आँखे राहे तक-तक थक गई,

दिल की धड़कन धक-धक कर गई,

अब खुद ही निकला हूँ पैदल तुम्हें ढूँढने,

पर अब तक तेरा देश नहीं आया है|

कैसे हो तुम.....


वहां बैठे-बैठे दिल में कुछ अरमान उड़े थे,

अरमां वो आपस में मिलजुल बादल बन बैठे|

प्रेम की कोई हवा चलाकर वो बदल तुम तक पहुंचाएं हैं|

बदल बरसे तो हैं पर ठंडी पवन के झोंके,

अभी मुझ तक नहीं आये हैं|  
                          
कैसे हो तुम? बहुत दिनों से कोई सन्देश नहीं आया है,

बहुत लिखे ख़त मैंनें ही खुद, पर उत्तर अब तक नहीं पाया है|



(रवि आई.आई.टी. कानपुर में द्वितीय वर्ष के छात्र हैं )