बुधवार, 23 जुलाई 2014

कठपुतली का खेल



















( चित्र http://vichitrapedia.com से साभार )

यहाँ होता क्या है 
बस एक कठपुतली का खेल 
कई मुखौटे हैं 
सभी के पास 
अपने लिये 
अलग अलग
एक दूसरे से जुड़ने के लिये
कुछ धागे हैं 
आप मुखौटा हटाइये 
धागा टूट जाएगा 
ये कठपुतली का खेल है 
थोड़े वक़्त बाद
खेल खत्म होता है 
कठपुतली चलानेवाला सामने है 
बिना क़िसी मुखौटे के 
अब माहौल में 
बस तालियों की गूंज है

मंगलवार, 22 जुलाई 2014

एक कप चाय














एक कप मीठी चाय 
जो अभी थोड़ी देर पहले 
फ़ीकी थी 
जिसे मैने पीने से इंकार कर दिया था 
ये कहकर कि-
ये फीकी है
उन लोगों की मौजूदगी में
जिनके लिये 
वो हमेशा से मीठी थी
एक चम्‍मच चीनी डालने के बाद 
मीठी हो गई
उन्ही लोगो की मौजूदगी में 
जिनके लिये वो हमेशा मीठी थी

रविवार, 20 जुलाई 2014

आज़ादी का संघर्ष- कल भी और आज भी



-सुरभि ममता कारवा 

ख़ुदा की नेमत हैं कि किताबें पढ़ने का शौक है, इसीलिए अक्सर देशप्रेमियों के किस्से पढ़ती हूँ। देशप्रेमी भी देश के लिए एक दीवानापन, एक पागलपन, एक अजीब-सा जुनून और दुनियादारी के लिए निर्मोह की भावना लिए चलते हैं। सच में वे लोग सौभाग्यशाली होते हैं जो देशप्रेम की आग में जलने का अवसर पाते हैं। ना माँ-बाप की चिंता, ना अपने प्रियतम की परवाह! क्या गज़ब बेपरवाही, क्या गज़ब फकीरी! ऐसी कैफियत लाते कहाँ से थे? जिस उम्र में हम आज के नौजवानों को दिल्लगी से फुर्सत नहीं वहीं ये जेल जाने को तत्पर, सर कटाने को तैयार! 

अक्सर ख्याल आता है कि काश आजादी के संघर्ष के समय पैदा हुई होती! काश मेरा जन्म 1995 में न हो अंग्रेज़ो की 200 वर्षों की गुलामी के दौरान हुआ होता! काश! किसी शहीद की पत्नी बन पाती! काश! अपने बेटे/बेटी को तिलक लगा कर मातृभूमि पर जान देने भेजती! और ये ही क्यूँ? खुद भी स्वतन्त्रता की बलि वेदी में कूद जाती! काश! मैं भी दांडीमार्च कर पाती! काश स्वदेशी आंदोलन में विलायती कपड़ों की होली जला पाती! गांधी, भगत, खुदीराम, सुभाष चन्द्र, चन्द्रशेखर सब का सान्निध्य पा सकती! मैं उस जमाने की आम नागरिक ही होती तो खूब होता! क्योंकि अकेले गांधीजी, नेहरूजी कुछ नहीं कर सकते थे जब तक कि उन्हें आम लोगों का साथ न मिला होता। मेरे लिए वो आदमी जो अपनी नौकरी छोड़ देश-सेवा में लग गया था, उतना ही धन्य है जितने गाँधीजी!

पर आज भी हम आज़ाद कहाँ हैं? पहले अंग्रेज़ थे, अब भ्रष्टाचार, महँगाई, गरीबी, सामाजिक कुप्रथाएं, बालश्रम और न जाने कौन-कौन से अंग्रेज शासन कर रहे हैं? हाँ! हाँ! आज़ादी का संघर्ष अभी पूरा नहीं हुआ हैं। अभी तो कोसों दूर हैं। आज भी हम उन आदर्शों को नहीं पा सके हैं जिनकी बात हमारे संविधान की प्रस्तावना में की गयी हैं। आज भी करोड़ों लोग सामाजिक एवं आर्थिक न्याय के लिए तरस रहे हैं। 

मुझे इस जीवन का लक्ष्य मिल गया! आज भी देश को हमारी जरूरत हैं। आज भी आज़ादी का एक संघर्ष हैं जो लहू चाहता हैं।  

(सुरभि राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, लखनऊ की छात्रा हैं)

:चित्र ibnlive.com से साभार