शुक्रवार, 22 अगस्त 2014

परसाई और ज्यादा ज़रूरी हो गए हैं समय के साथ



इस लेख में मैं और कुछ नहीं लिखना चाहूँगा सिवाय कि परसाई को पढ़ने और उनके लिखे हुए से जुड़ पाने के अपने अनुभव। हो सकता है कि समय रहे तो इसका भाग दो, तीन वगैरह भी लिखा जाए। मैं ये तो दावा नहीं करूँगा कि मैंने परसाई को पर्याप्त पढ़ लिया है लेकिन जितना पढ़ा है वो भी बहुत सब्स्टेंशिअल है। ये पिछले लेखों की तरह कन्वेंशनल टाइप श्रद्धांजलि लेख बिल्कुल नहीं होना चाहिए- वरना सिद्ध हो जाएगा कि मैंने परसाई को थोड़ा भी नहीं समझा।

शुरुआत में साहित्य पढ़ने वाले बहुत से लोगों की तरह मुझे भी हास्य और व्यंग्य के बीच की सीमा का अंदाज़ा नहीं था। बाद में पता चला कि हास्य सिर्फ़ हँसी भर दे सकता है; व्यंग्य हँसी भी ला सकता है लेकिन हँसी न तो उसका महत्वपूर्ण अंग है और न ही उसका एकमात्र लक्ष्य। और ये बात एकदम स्पष्ट हुई परसाई के व्यंग्य-निबंध पढ़कर।

पहली रचना थी 'वैष्णव की फिसलन'।
वैष्णव करोड़पति है। जायदाद लगी है। भगवान सूदखोरी करते हैं। ब्याज़ से क़र्ज़ देते हैं। वैष्णव दो घण्टे भगवान विष्णु की पूजा करते हैं, फिर गादी-तकियेवाली बैठक में आकर धर्म को धंधे से जोड़ते हैं। धर्म धंधे से जुड़ जाए, इसी को ‘योग’ कहते हैं।
समाज में उपस्थित छिछले स्तर की धार्मिक प्रवृत्तियों पर कैसा तीखा उपहास है। हमारा स्वार्थ ही हमारा आत्म भी है और हमारा भगवान भी। स्वार्थों के नाते हम किसी भी तरह अपने किए को जस्टिफाई कर सकते हैं। धार्मिक स्वाँग हमें ये भ्रम दिलाये रहता है कि जो भी है सब कुछ भगवान की मर्जी, हमारा उस पर नियंत्रण ही कहाँ !
प्रभु, आपके ही आशीर्वाद से मेरे पास इतना सारा दो नंबर का धन इकठ्ठा हो गया है। अब मैं इसका क्या करूँ? आप ही रास्ता बताइए। मैं इसका क्या करूँ?
खुद को धंधे की आवश्यकता के हिसाब से एडजस्ट कर लेना स्वाभाविक है लेकिन धर्म उसे कैसे रोचक बना रहा है देखिये-
दूसरे दिन वैष्णव साष्टांग विष्णु के सामने लेट गया। 
वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज़ आई- मूर्ख, गांधीजी से बड़ा वैष्णव इस युग में कौन हुआ है? गाँधी का भजन है- ‘वैष्णव जन तो तेणे कहिये, जे पीर पराई जाणे रे।’ तू इन होटलों में रहनेवालों की पीर क्यों नहीं जानता? उन्हें इच्छानुसार खाना नहीं मिलता। इनकी पीर तू समझ और उस पीर को दूर कर।
वैष्णव समझ गया।उसने जल्दी ही गोश्त, मुर्गा, मछली का इंतज़ाम करवा दिया।
 इस तरह पहले गोश्त फिर उसको पचाने की दवा यानी शराब और फिर ज़िंदा गोश्त यानी कैबरे का नंगा नाच भी बिज़नेस ऑन-डिमांड की तर्ज पर शुरू हो जाता है। और फिर-
कृपानिधान ! ग्राहक लोग नारी माँगते हैं – पाप की खान। मैं तो इस पाप की खान से जहाँ तक बनता है, दूर रहता हूँ। अब मैं क्या करूँ?
वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज़ आई– मूर्ख, यह तो प्रकृति और पुरुष का संयोग है। इसमें क्या पाप और क्या पुण्य? चलने दे।
परसाई के व्यंग्य निबंधों का उपसंहार पक्ष सबसे तीक्ष्ण होता है। ये उपसंहार देखिये-
अब वैष्णव का होटल खूब चलने लगा। शराब, गोश्त, कैबरे और औरत। वैष्णव धर्म बराबर निभा रहा है। इधर यह भी चल रहा है।
वैष्णव ने धर्म को धंधे से खूब जोड़ा है।
परसाई ने अपने समकालीन राजनीतिक सामाजिक परिवेश पर भी उतने ही करारे व्यंग्य किए हैं जबकि आम तौर पर लिखने वाले अपने समकालीन की सीधी आलोचना से बचते रहे हैं और व्यंग्य सीधे न होकर इनडाइरेक्ट बात रखते हैं। परसाई सीधे भी कहते हैं और तीखा भी कहते हैं।
संघ का विज्ञानं अलग है जैसे उसका इतिहास अलग है। डॉक्टर और वैज्ञानिक खून के टाइप बताते है। मगर संघ मानता है - इन टाइप्स के अलावा एक टाइप "हिन्दू" खून भी होता है।
संघवाले मानते है कि हिन्दू पूर्वजो ने अंतरिक्ष यान बनाया था। अचरज इसी बात का है कि अंतरिक्ष यान बनाने वालो ने साइकिल क्यों न बना ली।
या फिर ये -
मेरे भाषण का विषय था- आजादी के पच्चीस वर्ष। सामने लडकियां बैठी थीं, जिनकी शादी बिना दहेज़ के नहीं होने वाली थी। बैल की तरह मार्केट में उनके लिए पति खरीदना ही होगा। स्त्री के लिए अब भी पत्नी के पद पर नौकरी करना सबसे सुरक्षित जीविका है।…
और लड़के बैठे थे, जिन्हें डिग्री लेने के बाद सिर्फ़ सिनेमाघर पर पत्थर फेंकने का काम मिलने वाला है।… 
महात्मा गाँधी मार्ग पर ठग बैठते हैं। रवीन्द्र मार्ग पर बूचड़खाने खुले हैं| परीक्षा में कोई बैठता है, और पास दूसरा हो जाता है। सहकारी दूकान के सामने कतार लगी है और पीछें के दरवाजे से चीजें कालाबाजार में जा रही हैं। हम किसी को भ्रष्टाचारी घोषित करते हैं और वो सदाचार-अधिकारी बना दिया जाता है।…
आज़ादी के पच्चीस वर्षों का यही हिसाब है।

लेकिन उनकी इस शैली से अलग एक निबंध है 'धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे'। उसका ये अंश पढ़िए -
राजनैतिक पार्टियां  प्रचार कार्य में लगी हैं ।
पार्टी नं. १ कहती है- हम जनता को वचन देते हैं की हम सत्ता में आते ही खेती बंद करा देंगे । अन्न ही नहीं पैदा होगा तो जनता भूखी रहेगी ही।
जनता कहती है- नहीं, अन्न तो खूब पैदा होना चाहिए। फिर भी हमें भूखा रहने देना चाहिए। अन्न ही नहीं पैदा होगा तो हमारा राष्ट्रीय गौरव नष्ट हो जाएगा।
 पार्टी नं. २ वादा करती है- हम अन्न तो पैदा होने देंगे, पर उसे इतना महँगा कर देंगे कि लोग खा नहीं सकेंगे। 
 जनता कहती है- ये खेल हम बहुत देख चुके। हम नए ढंग से भूखे मरना चाहते हैं।
 पार्टी नं. ३ मंच पर आती है। कहती है- हम अन्न की पैदावार खूब बढ़ाएँगे, पर साथ ही चूहों का भी सघन उत्पादन होगा। जनता को अन्न-उत्पादन का गौरव भी मिलेगा और भूखा मरने का सुख भी। 
 जनता कहती है- ये पार्टी हमें पसंद है। इसी की सरकार बनेगी। हम बाहुल्य में भूखा मरना चाहते हैं। …
 सरकार बन जाती है। फसल चूहे खाते जाते हैं और आदमी ख़ुशी ख़ुशी मरते जाते है। एक साल अकाल पड़ जाता है। चूहे सरकार को घेरते हैं ('जनता नहीं') कि उनकी ओवरईटिंग की आदत पड़ गयी है और उनका पेट भरा जाए।
चूहे बेताब हैं। वे भूख से तिलमिला रहे हैं। … चूहे दाँत किटकिटाकर भिड़ जाते हैं।
पहले चूहे संविधान कुतरकर खा जाते हैं। फिर चूहे सरकार खा जाते हैं, संसद खा जाते हैं, न्यायपालिका को खा जाते हैं।
मेरी नींद खुल जाती है। संवैधानिक बहस करने वाले मुझे याद आते हैं। फिर याद आता है, रिक्शेवाला।
क्या अर्थ है, इस सपने का ? पता नहीं ।
लेकिन हम जानते हैं कि इसके क्या मतलब हैं और परसाई के समय से आगे आकर ऐतिहासिक दृष्टि से देखने पर हम ये भी जान पा रहे हैं कि इन चूहों को कौन पाल रहा है और ये भी कि इंसान अब भी जाग नहीं रहा। वो बस ख़ुशी से मर रहा है- किसी भुलावे में, किसी राजनैतिक छलावे में। और इसी वज़ह परसाई और ज्यादा आवश्यक होते जा रहे हैं समय के साथ। …



मंगलवार, 19 अगस्त 2014

जन्माष्टमी स्पेशल





  (चित्र http://iyadav.com से साभार ) 


हे योगेश्वर! आ जाओ, अब भक्त पुकारें तुम्हारें,
कलयुग है, प्रासंगिक हैं सारे सन्देश तुम्हारें|

मालूम है तुम इसमें, उसमें, मुझमें, सबमें,
फिर भी आओ, दरश दिखाओ,
अब भी भूखे सोते कई सुदामा,
बहुत राधिका व्याकुल,
ओ आओ किशन कन्हैया,
बंशी धुन सुनने को ये सारी दुनिया आकुल|
हे योगेश्वर! आ जाओ......

बहुत पुकारें द्रौपदी अब भी,
शहर-शहर अब गली-गली निर्लज्ज दुशासन|
ओ जाओ अर्जुन के संगी, पांचाली के भैया
अब सहा नहीं जा सकता हमसे,
दुर्योधन का अन्यायी कुशासन|
हे योगेश्वर! आ जाओ......

अब भी अर्जुन वापिस बाण डालता तरकस में,
सारे भीष्म, द्रोण का चेतन कुण्ठित,
द्वारिका पुनः मांगती राजा तुमसा,
दुनिया को गीता का फिरसे गीता का ज्ञान सुना जाओ,
अर्जुन को पुनः जगा जाओ, भारत को पुनः सजा जाओ|
हे योगेश्वर! आ जाओ......

रविवार, 17 अगस्त 2014

अमृतलाल नागर जो कभी नहीं मरे

" प्रेमचंद के उत्तराधिकारी के तौर पर टैग किया जाना कुछ हद तक उनकी क्षमताओं को एक दायरे में सीमित मान लेने जैसा है जबकि वो उस दायरे से कहीं ज्यादा बड़ी परिधि खींचते हैं। "






अमृतलाल नागर ने बहुत कुछ लिखा। अगर हम श्रेणियों में बांटें यानि क्लासिफाई करें तो उन्होंने कहानियाँ, उपन्यास, जीवनी, नाटक, रेडियो नाटक, रिपोर्ताज, संस्मरण, अनुवाद, बाल साहित्य आदि गद्य में लगभग सब कुछ लिखा। और सिर्फ़ साहित्य नहीं बल्कि सिनेमा में भी उन्होंने महत्वपूर्ण फिल्मों के संवाद और पटकथा ( डायलॉग और स्क्रीनप्ले ) लिखे, जैसे कल्पना (१९४६), संगम (१९४१), और बहूरानी (१९४१)। साहित्य अकादमी, प्रेमचंद पुरस्कार, और सोवियत संघ नेहरू पुरस्कार आदि से उनके लेखन को सम्मानित किया गया है।
अपने समय के बहुत से अन्य लेखकों की तरह ही उनके लेखन में भी प्रमुख विषय वही हैं - सामाजिक बंधनों के प्रति विद्रोह, प्रशासकों के द्वारा उत्पीड़न, ज़मींदारों-व्यापारियों द्वारा जनता का शोषण, साम्प्रदायिकतावादियों की कुटिल चालें आदि। लेकिन उनका कला तत्त्व अन्य सभी लेखकों के कला तत्त्व से अलग दिखाई देता है। 

मैंने उनकी पहली बार जो कहानी पढ़ी थी वो थी 'प्रायश्चित '। यक़ीनन आप में से भी बहुतों ने पढ़ी होगी और उसके कथ्य को समझा भी होगा। समाज के व्यर्थ स्टीरियोटाइप को भंग करती ये कहानी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कि उनके समय में थी। विशेष तौर पर नारी के प्रति जिस मध्यकालीन (feudal) सोच को हम अभी भी अपने समाज में पनपा रहे हैं ये कहानी उसको तहस-नहश कर देती है। जिन्होंने नहीं पढ़ी वो जरूर पढ़ें और मुझे लगता है जिन्होंने पढ़ रखी है वो भी एक बार फ़िर से पढ़ना चाहेंगे। ये रही कहानी -

प्रायश्चित 

 

जीवन वाटिका का वसंत, विचारों का अंधड़, भूलों का पर्वत, और ठोकरों का समूह है यौवन। इसी अवस्था में मनुष्य त्यागी, सदाचारी, देश भक्त एवं समाज-भक्त भी बनते हैं, तथा अपने ख़ून के जोश में वह काम कर दिखाते हैं, जिससे कि उनका नाम संसार के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिख दिया जाता है, तथा इसी आयु में मनुष्य विलासी, लोलुपी और व्यभिचारी भी बन जाता है, और इस प्रकार अपने जीवन को दो कौड़ी का बनाकर पतन के खड्ड में गिर जाता है, अंत में पछताता है, प्रायश्चित करता है, परंतु प्रत्यंचा से निकाला हुआ बाण फिर वापस नहीं लौटता, खोई हुई सच्ची शांति फिर कहीं नहीं मिलती।



मणिधर सुन्दर युवक था। उसके (जेब) पर्स में पैसा था और पास में था नवीन उमंगों से पूरित हृदय। वह भोला-भाला सुशील युवक था। बेचारा सीधे मार्ग पर जा रहा था, यारों ने भटका दिया—दीन को पथ-हीन कर दिया। उसे नित्य-प्रति कोठों की सैर कराई, नई-नई परियों की बाकीं झाकी दिखाई। उसके उच्चविचारों का उसकी महत्वकाक्षांओं का अत्यन्त निर्दयता के साथ गला घोंट डाला गया। बनावटी रूप के बाज़ार ने बेचारे मणिधर को भरमा दिया। पिता से पैसा मांगता था वह, अनाथालयों में चन्दा देने के बहाने और उसे आंखें बंद कर बहाता था, गंदी नालियों में, पाप की सरिता में, घृणित वेश्यालयों में।



ऐसी निराली थी उसकी लीला। पंडित जी वृद्ध थे। अनेक कन्याओं के शिक्षक थे। वात्सल्य प्रेम के अवतार थे। किसी भी बालिका के घर खाली हाथ न जाते थे। मिठाई, फल, किताब, नोटबुक आदि कुछ न कुछ ले कर ही जाते थे तथा नित्यप्रति पाठ सुनकर प्रत्येक को पारितोषिक प्रदान करते थे। बालिकाएं भी उनसे अत्यन्त हिल-मिल गई थीं। उनके संरक्षक गण भी पंडित जी की वात्सल्यता देख गद्गद्ग हो जाते थे। घरवालों के बाद पंडित जी ही अपनी छात्राओं के निरीक्षक थे, संरक्षक थे। बालिकाएं इनके घर जातीं, हारमोनियम बजातीं, गातीं, हंसतीं, खेलती, कूदतीं थीं। पंडितजी इससे गद्गद्ग हो जाते थे तथा बाहरवालों से प्रेमाश्रु ढरकाते हुआ कहा करते, ‘‘इन्हीं लड़कियों के कारण मेरा बुढ़ापा कटता चला जा रहा है। अन्यथा अकेले तो इस संसार में मेरा एक दिवस भी काटना भारी पड़ जाता।’’ समस्त संसार पंडितजी की एक मुंह से प्रशंसा करता था।



बाहरवालों को इस प्रकार ठाट दिखाकर पंडितजी दूसरे ही प्रकार का खेल खेला करते थे। वह अपनी नवयौवना सुन्दर छात्राओं को अन्य विषयों के साथ-साथ प्रेम का पाठ भी पढ़ाया करते थे, परन्तु वह प्रेम, विशुद्ध प्रेम नहीं, वरन प्रेम की आड़ में भोगलिप्सा की शिक्षा थी, सतीत्व विक्रय का पाठ था। काम-वासना का पाठ पढ़ाकर भोली-भाली बालिकाओं का जीवन नष्ट कराकर दलाली खाने की चाल थी, टट्टी की आड़ में शिकार खेला जाता था। पंडित जी के आस-पास युनिवर्सिटी तथा कालेज के छात्र इस प्रकार भिनभिनाया करते थे, जिस प्रकार कि गुड़ के आस पास मक्खियां। विचित्र थे पंडितजी और अद्भुत् थी उनकी माया।



रायबहादुर डा. शंकरलाल अग्निहोत्री का स्थान समाज में बहुत ऊंचा था। सभा-सोसाइटी के हाकिम-हुक्काम में आदर की दृष्टि से देखे जाते थे वह। उनके थी एक कन्या –मुक्ता। वह हजारों में एक थी—सुन्दरता और सुशीलता दोनों में। दुर्भाग्यवश वृद्ध पंडितजी उसे पढ़ाने के लिए नियुक्त किए गए। भोली-भाली बालिका अपने आदर्श को भूलने लगी। पंडित जी ने उसके निर्मल हृदय में अपने कुत्सित महामंत्र का बीजारोपण कर दिया था। अन्य युवती छात्राओं की भांति मुक्ता भी पंडित जी के यहां ‘हारमोनियम’ सीखने जाने लगी।



पंडितजी मुक्ता के रूप लावण्य को किराये पर उठाने के लिए कोई मनचला पैसे वाला ढूंढ़ने लगे। अंत में मणिधर को आपने अपना पात्र चुन लिया। नई-नई कलियों की खोज में भटकने वाला मिलिन्द इस अपूर्व कली का मदपान करने के लिए आकुलित हो उठा। इस अवसर पर पंडितजी की मुट्ठी गर्म हो गई। दूसरे ही दिवस मणिधर को पंडित जी के यहां जाना था। वह संध्या अत्यन्त ही रमणीक थी। मणि ने उसे बड़ी प्रतीक्षा करने के पश्चात पाया था। आज वह अत्यन्त प्रसन्न था। आज उसे पंडितजी के यहां जाना था।...वह लम्बे-लम्बे पग रखता हुआ चला जा रहा था पंडितजी के पापालय की ओर। आज उसे रुपयों की वेदी पर वासना-देवी को प्रसन्न करने के लिए बलि चढ़ानी थी।



मुक्ता पंडितजी के यहां बैठी हारमोनियम पर उंगलियां नचा रही थी, और पंडितजी उसे पुलकित नेत्रों से निहार रहे थे। वह बाजा बजाने में व्यस्त थी। साहसा मणिधर के आ जाने से हारमोनियम बंद हो गया। लजीली मुक्ता कुर्सी छोड़कर एक ओर खड़ी हो गई। पंडितजी ने कितना ही समझाया, ‘‘बेटी ! इनसे लज्जा न कर, यह तो अपने ही हैं। जा, बजा, बाजा बजा। अभ्यागत सज्जन के स्वागत में एक गीत गा।’’ परन्तु मुक्ता को अभी लज्जा ने न छोड़ा था। वह अपने स्थान पर अविचल खड़ी थी, उसके सुकोमल मनोहारी गाल लज्जावश ‘अंगूरी’ की भांति लाल हो रहे थे, अलकें आ-आकर उसका एक मधुर चुम्बन लेने की चेष्टा कर रही थीं। मणिधर उस पर मर मिटा था। वह उस समय बाह्य संसार में नहीं रह गया था। यह सब देख पंडितजी खिसक गए। अब उस प्रकोष्ठ में केवल दो ही थे।



मणिधर ने मुक्ता का हाथ पकड़कर कहा, ‘‘आइए, खड़ी क्यों हैं। मेरे समीप बैठ जाइए।’’ मणिधर धृष्ट होता चला जा रहा था। मुक्ता झिझक रही थी, परन्तु फिर भी मौन थी। मणिधर ने कहा—‘‘क्या पंडितजी ने इस प्रकार आतिथ्य सत्कार करना सिखलाया है कि घर पर कोई पाहुन आवे और घरवाला चुपचाप खड़ा रहे...शुभे, मेरे समीप बैठ जाइये।’’ प्रेम की विद्युत कला दोनों के शरीर में प्रवेश कर चुकी थी। मुक्ता इस बार कुछ न बोली। वह मंत्र-मुग्ध-सी मणि के पीछे-पीछे चली आई तथा उससे कुछ हटकर पलंग पर बैठ गई। ‘‘आपका शुभ नाम ?’’ मणि ने ज़रा मुक्ता के निकट आते हुए कहा। ‘‘मुक्ता।’’ लजीली मुक्ता ने धीमे स्वर में कहा।



बातों का प्रवाह बड़ा, धीरे-धीरे समस्त हिचक जाती रही। और..और !! थोड़ी देर के पश्चात- मुक्ता नीरस हो गई, उसकी आब उतर गई थी।



‘‘हिजाबे नौं उरुमा रहबरे शौहर नबी मानद, अगर मानद शबे-मानद शबे दीगर नबीं मानद।’’



हिचक खुल गई थी। मणि और मुक्ता का प्रेम क्रमशः बढ़ने लगा था। मणि मिलिन्द था, पुष्प पर उसका प्रेम तभी ही ठहर सकता है, जब तक उसमें मद है, परन्तु मुक्ता का प्रेम निर्मल और निष्कलंक था। वह पाप की सरिता को पवित्र प्रेम की गंगा समझकर बेरोक-टोक बहती ही चली जा रही थी। अचानक ठोकर लगी। उसके नेत्र खुल गए। एक दिन उसने तथा समस्त संसार ने देखा कि वह गर्भ से थी।



समाज में हलचल मच गई। शंकरलाल जी की नाक तो कट ही गई। वह किसी को मुँह दिखाने के योग्य न रह गए थे—ऐसा ही लोगों का विचार था। अस्तु। जाति-बिरादरी जुटी, पंच-सरपंच आए। पंचायत का कार्य आरम्भ हुआ। मुक्ता के बयान लिए गए। उसने आंसुओं के बीच सिसकियों साथ-साथ समाज के सामने सम्पूर्ण घटना आद्योपांत सुना डाली— पंडितजी का उसके भोले-भाले स्वच्छ हृदय में काम-वासना का बीजारोपण करना, तत्पश्चात उसका मणिधर से परिचय कराना आदि समस्त घटना उसने सुना डाली। पंडितजी ने गिड़गिड़ाते अपनी सफाई पेश की तथा मुक्ता से अपनी वृद्धावस्था पर तरस खाने की प्रार्थना की। परंतु मणिधर शान्त भाव से बैठा रहा।



पंचों ने सलाह दी। बूढ़ों ने हां में हां मिला दिया। सरपंच महोदय ने अपना निर्णय सुना डाला। सारा दोष मुक्ता के माथे मढ़ा गया। वह जातिच्युत कर दी गई। ‘रायबहादुर के पिता की भी वही राय थी, जो पंचों की थी। मणिधर और पंडितजी को सच्चरित्रता का सर्टिफिकेट दे निर्दोषी करार दे दिया गया। केवल ‘अबला’ मुक्ता ही दुख की धधकती हुई अग्नि में झुलसने के लिए छोड़ दी गई। अन्त में अत्यन्त कातर भाव से निस्सहाय मुक्ता ने सरपंच की दोहाई दी—उसके चरणों में गिर पड़ी। सरपंच घबराए। हाय, भ्रष्टा ने उन्हें स्पर्श कर लिया था। क्रोधित हो उन्होंने उस गर्भिणी, निस्सहाय, आश्रय-हीना युवती को धक्के मार कर निकाल देने की अनुमति दे दी। उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए हिन्दू समाज को वास्तव में पतन के खड्ड में गिराने वाले, नरराक्षस, खुशामदी टट्टू ‘पीर बवर्ची, भिस्ती, खर’ की कहावत को चरितार्थ करने वाले इस कलंक के सच्चे अपराधी पंडितजी तत्क्षण उठे उसे धक्का मारकर निकालने ही वाले थे—अचानक आवाज आई ठहरो।



अन्याय की सीमा भी परिमित होती है। तुम लोगों ने उसका भी उल्लंघन कर डाला है।’’ लोगों ने नेत्र घुमाकर देखा, तो मणिधर उत्तेजित हो निश्चल भाव से खड़ा कह रहा था, ‘‘हिन्दू समाज अन्धा है, अत्याचारी है एवं उसके सर्वेसर्वा अर्थात् हमारे ‘माननीय’ पंचगण अनपढ़ हैं, गंवार हैं, और मूर्ख हैं। जिन्हें खरे एवं खोटे, सत्य और असत्य की परख नहीं वह क्या तो न्याय कर सकते हैं और क्या जाति-उपकार ? इसका वास्तविक अपराधी तो मैं हूं। इसका दण्ड तो मुझे भोगना चाहिए। इस सुशील बाला का सतीत्व तो मैंने नष्ट किया है और मुझसे भी अधिक नीच हैं यह बगुला भगत बना हुआ नीच पंडित। इस दुराचारी ने अपने स्वार्थ के लिए न मालूम कितनी बालाओं का जीवन नष्ट कराया है—उन्हें पथभ्रष्ट कर दिया है। जिस आदरणीय दृष्टि से इस नीच समाज में देखा जाता है वास्तव में यह नीच उसके योग्य नहीं, वरन यह नर पशु है, लोलुपी है, लम्पट है। सिंह की खाल ओढ़े हुए तुच्छ गीदड़ है-रंगा सियार है।’’



सब लोग मणिधर के ओजस्वी मुखमंडल को निहार रहे थे। मणिधर अब मुक्ता को सम्बोधित कर कहने लगा, ‘‘मैंने भी पाप किया है। समाज द्वारा दंडित होने का वास्तविक अधिकारी मैं हूं। मैं भी समाज एवं लक्ष्मी का परित्यग कर तुम्हारे साथ चलूंगा। तुम्हें सर्वदा अपनी धर्मपत्नी मानता हुआ अपने इस घोर पाप का प्रायश्चित करूंगा। भद्रे, चलो अब इस अन्यायी एवं नीच समाज में एक क्षण भी रहना मुझे पसंद नहीं...चलो।’’ मणिधर मुक्ता का कर पकड़कर एक ओर चल दिया, और जनता जादूगर के अचरज भरे तमाशे की नाई इस दृश्य को देखती रह गयी।
 

(कहानी का टेक्स्ट गद्यकोश वेबसाइट से साभार )