शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

वैज्ञानिकों के सामाजिक उत्तरदायित्व: सामाजिक प्रयोगों में लगे आई आई टी के कतिपय प्राध्यापकगण


- प्रो. अरुण कुमार शर्मा


आई आई टी कानपुर के एक सदस्य के रूप में मुझे गर्व है कि हमारे संस्थान में कई महत्वपूर्ण राष्ट्रीय पदकों और उपाधियों को प्राप्त प्राध्यापकों/वैज्ञानिकों ने अपनी सेवाएँ दी हैं। इनमें भारत रत्न, भटनागर पुरुष्कार तथा पद्म पुरूष्कार विजेता प्राध्यापक सम्मिलित हैं। किन्तु आई आई टी कानपुर का अपना एक अन्य अनकहा, गौरवशाली इतिहास भी है। यहाँ ऐसे कई प्राध्यापक और कर्मचारी हुए हैं जिन्होने अपने मुख्य कार्य को सुचारु रूप से करते हुये समाज और पर्यावरण के बारे में भी सोचा है। धन्य हैं ऐसे लोग और धन्य है आई आई टी कानपुर की भूमि। मैं जब 1980 में यहाँ आया था तो आई आई टी में ऐसे अनेक लोग थे जो सामाजिक गतिकी के ज्ञान को सबसे बड़ा वैज्ञानिक ज्ञान समझते थे और समय निकाल कर इस क्षेत्र में प्रयोग भी करते थे। प्रो बसंत सरकार, प्रो पी आर के राव, प्रो ए पी शुक्ला उनमें कुछ प्रमुख नाम हैं। शुक्लाजी तो अभी भी पास में ही रहते हैं और कभी कभी परिसर में भी दिख जाते हैं।  इस लेख मे मैं कुछ ऐसे तीन प्राध्यापकों के बारे में लिखना चाहता हूँ। संयोग से तीनों के नाम हिन्दी के अक्षर से ही प्रारम्भ होते हैं। एक महत्वपूर्ण अक्षर है जिससे विद्वता, विप्लव, विज्ञान, विद्रोह, वैभव और विपश्यना जैसे शब्दों की उत्पत्ति भी होती है। ये प्राध्यापक हैं प्रो राहुल वर्मन, प्रो एच सी वर्मा और प्रो महेंद्र वर्मा। यहाँ यह कहना आवश्यक है कि इस लेख का उद्धेश्य किसी को महिमामंडित करना नहीं है अपितु संस्थान के प्राध्यापकों और छात्रों के मध्य सामाजिक कार्य के मूल्य को स्थापित करना और संस्थान को समाज के प्रति अधिक संवेदनशील बनाना है। 

प्रो राहुल वर्मन इंडस्ट्रियल मैनेजमेंट में प्रोफेसर तथा संप्रति विभागाध्यक्ष हैं। प्रो वर्मन की शोध के प्रमुख विषय लघु उद्योग, संगठनों में प्रजातांत्रिक कार्यप्रणालियाँ, वैश्वीकरण, श्रम संगठन और श्रमिक आंदोलन हैं। अपने शोध विषयों को ध्यान में रखते हुए उन्होने संस्थान के भीतर और बाहर श्रमिकों के अधिकारों, न्यूनतम मजदूरी, ठेकेदारी, तथा संस्थान की मुख्य एम्प्लोयेर के रूम में भूमिका के बारे मे गहन अध्ययन किया है। वे कई बार संस्थान के संकाय सदस्यों के संगठन फैकल्टी फॉरम की संचालन समिति के सदस्य भी रहे हैं। संप्रति आई एम ई डिपार्टमेन्ट के अध्यक्ष हैं। 

जैसा कि सम्पूर्ण देश में हो रहा है, समय के साथ यद्यपि संस्थान में तेजी के साथ विकास किया है, नियमित कर्मचारियों की संख्या में कमी आई है, और ठेकेदारों के माध्यम से काम करने वाले अनियमित कर्मचारियों की संख्या मे काफी वढ़ोतरी हुई है। इस परिवेश में संस्थान के पूर्णरूपेण सजग रहने के वावजूद श्रमिकों के शोषण और उनके प्रति अन्याय के समाचार मिलते रहते हैं। अनेकों समस्याएँ संभावित हैं: न्यूनतम मजदूरी नियमों का पालन न होना, बच्चों की शिक्षा, चिकित्सा सुविधा, दुर्घटना बीमा और कंपनसेशन। ठेकेदारों में संस्थान के नियमों को ताक पर रखकर या कानूनी कमजोरियों का लाभ उठाकर लाभ कमाने की प्रवृत्ति समाज की भांति यहाँ भी संभव है। प्रो राहुल वर्मन एवं संकाय के कई अन्य सदस्य और विद्यार्थी अनियमित कर्मचारियों के साथ जुड़ कर उनकी समस्याओं के बारे में चिंतन और कार्य करते रहें हैं। उनका यह कार्य सफलताओं और असफलताओं का एक लंबा इतिहास है। कितनी महत्वपूर्ण बात है कि कुछ ऐसे भी प्राध्यापक हैं कि जो पुस्तकों, प्रयोगशालाओं और जरनल्स के बाहर जाकर वास्तविक जगत के प्रयोगों में वास्तविक ज्ञान खोजने में लगे हैं। कहना न होगा कि उनकी कक्षाओं और लेखन में पश्चिमी उभरते भारत के सशक्तिकरण के चिंतन का संदेश भी समावेशित रहता है। ऐसे ही कुछ सामाजिक चिंतकों, कार्यकर्ताओं और शुभाकांक्षियों के द्वारा हमारा मंच का गठन हुआ है जहां संबन्धित व्यक्ति सप्ताह में एक दिन बैठ कर श्रमिकों की समस्याओं पर विचार कर सकते हैं। प्रो राहुल वर्मन और अन्य संबन्धित व्यक्तियों के कार्यों से अनेक भेद उजागर हुए हैं। एक समाजशास्त्री के रूप में, और जो मुझे संगठनात्मक कार्य करने का अनुभव है, मेरी दृष्टि में कुछ परिणाम उल्लेखनीय हैं: (अ) संगठन के अभाव में श्रमिकों को शोषण से मुक्त नहीं किया जा सकता; (ब) शक्ति के असंतुलन के कारण श्रमिकों का शोषण हो सकता है; (स) कानून कुछ इस प्रकार के हैं कि वे वास्तविक सामाजिक सम्बन्धों और परिस्थितियों की अनदेखी करते हैं और श्रमिकों को विधिसम्मत लाभ भी प्रायः नहीं मिल पाता; और (द) असमानता की सततता पूंजीवादी विचारधारा के साथ जुड़ी हुई होती है। प्रो राहुल वर्मन के साथ मैं सहमत हूँ कि समाज के सभी वर्गों में शिक्षा, एकता, स्वप्न देखना और संघर्ष करना उनकी प्रगति के आवश्यक तत्व हैं जिन्हे स्थापित करने की आवश्यता है। 

प्रो. एच सी वर्मा और प्रो. महेंद्र वर्मा दोनों भौंतिक विज्ञान विभाग में प्राध्यापक हैं। आज उच्चतर माध्यमिक स्तर पर भौंतिक विज्ञान का शायद ही कोई ऐसा विद्यार्थी होगा जो प्रो एच सी वर्मा को न जानता हो या उसने उनकी लिखी पुस्तक Concepts of Physics न पढ़ी हो। एक हिन्दी फिल्म ने तो उनकी पुस्तक को सामान्य जनमानस तक भी ला दिया है। मैंने स्वयं यह पुस्तक पढ़ी है। मैं कह सकता हूँ कि गणित का सामान्य ज्ञान रखने वाला कोई भी विद्यार्थी उनकी पुस्तक सरलता से समझ सकता है और भौंतिक विज्ञान के मूल तत्वों को जान सकता है। प्रयोगों के माध्यम से विज्ञान को समझाने में प्रो. एच सी वर्मा को पूरे देश में ख्याति मिली है। किन्तु मैं उनके दूसरे स्वरूप के बारे में बात करना चाहता हूँ। प्रो वर्मा ने अनौपचारिक शिक्षा, निर्धन वर्ग की शिक्षा, प्रतिभाशाली छात्रों को आर्थिक सहायता जुटा कर उच्च शिक्षा दिलाने, और सांस्कृतिक विरासत के साथ प्रारम्भिक शिक्षा को जोड़कर समीप के गाँवों में शिक्षा के फैलाव को लेकर बहुत से कार्य किए हैं और अनेकों छात्रों को अपने आस पास के परिवेश से जुड़ने के लिए प्रेरित किया है। प्रो एच सी वर्मा और शिक्षा सोपान (एक स्वैच्छिक संस्था) एक दूसरे के पर्याय बन गए हैं। शिक्षा सोपान नामक संस्था जिसके साथ प्रो समीर खांडेकरजी भी संबद्ध हैं ग्रामीण क्षेत्रों और निम्न आय वर्ग के छात्रों के लिए महत्वपूर्ण कार्य कर रही है।  वर्माजी से मेरी घनिष्ठ मित्रता है और मैंने उनको समीप से देखा है। वे विद्यार्थियों के लिए समाज मे रहते हुए, कैसे त्याग और समर्पण का जीवन जिया जा सकता है उसके एक अच्छे उदाहरण हैं। सामाजिक संघर्ष, राष्ट्रीय आपदाओं और सामाजिक सशक्तिकरण में उनकी एक महत्वपूर्ण भूमिका है। मेरी दृष्टि में उनके अनेकों प्रमुख योगदान हैं जैसे आई आई टी कानपुर जैसी आभिजात्य संस्थाओं के विद्यार्थियों को ग्रामीण समाज के साथ जोड़ना, भारतीय चिंतन को आगे बढ़ाना, एवं निर्धन किन्तु प्रतिभाशाली किशोरों को प्रेरित करना और आगे बढ़ाना। जहां तक मैं समझ पाया हूँ प्रो एच सी वर्मा की विचारधारा राष्ट्रीयता की विचारधारा है जिसे उनके फेसबुक की टिप्पणियों से भी स्पष्टता के साथ समझा जा सकता है।
प्रो. महेंद्र वर्मा मेरे तीसरे प्राध्यापक हैं जिनसे हम प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं। किसी भी प्रकार के अहंकार से परे, अपने अध्यापन और शोध के कार्यों को करते हुये उन्होने भी अनौपचारिक शिक्षा और कई अन्य क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। प्रो वर्मा ने टरबुलेन्स के क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति का कार्य किया है और कर रहें हैं। उनके शोध पत्र विश्व के श्रेष्ठतम जरनल्स में छप चुके हैं। जींस और कुर्ते में, सामान्य मुस्कान के साथ टहलते हुए वर्माजी को देख कर कोई भी कह सकता है कि मूल रूप से वो एक संवेदनशील सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वर्माजी जागृति नामक स्वैच्छिक संस्था से जुड़े हुए हैं और दूसरे वर्माजी की भांति सामाजिक कार्यों, मुख्य रूप से अनौपचारिक और प्रारम्भिक शिक्षा से जुड़े हुए हैं। यह देखकर किस को गर्व नहीं होगा कि उनकी प्रेरणा प्राप्त कर अनेकों विद्यार्थी, ‘प्रयास के माध्यम से, निर्माण कार्यों में लगे हुए अनियमित मजदूरों के, और आउटहाउस में  रहने वालों, नौकरों के बच्चों को प्रतिदिन शिक्षा देने जाने के लिए समर्पित हैं। सड़क पर चलते मेरी वर्माजी से कई बार ऐसे ही बातें हुई हैं। वर्माजी पर डा राम मनोहर लोहिया का प्रभाव स्पष्ट है। डा लोहिया ने नमक सत्याग्रह पर समाजशास्त्र मे पी एच डी की उपाधि प्राप्त की थी। मैं डा लोहिया का एक वाक्य कभी नहीं भूल पाऊँगा जिसमे उन्होने कहा था कि भारत का भविष्य ऐसे शूद्र नेता को पैदा करने में है जिसके पीछे ब्राह्मण भी गर्व से चल सके। मुझे लगता है के देश की राजनीति इसे समझने लगी है। इस वाक्य में नेता का शूद्र होना और साथ में उसका वह कद होना कि उसके पीछे ब्राह्मण भी गर्व से चल सकें दोनों ही महत्वपूर्ण बातें हैं। प्रयास का विद्यार्थियों पर क्या प्रभाव पड़ता है इसका ज्ञान मुझे तब हुआ जब मैंने उनके वार्षिक उत्सवों में ऐसे कई भूतपूर्व छात्रों को देखा जो आज देश के शीर्ष संस्थानों में शोध अथवा शिक्षण का कार्य कर रहें हैं। 

मैंने उपरोक्त प्राध्यापकों के साथ कई बार सभाओं, रैलियों और उत्सवों मे भाग लिया है। मैंने यह भी जाना है कि हम समाज के बारे मे सदैव ही सही नहीं सोचते हैं। समय के साथ हम और हमारे विचार भी बदलते हैं। मैंने यह भी जाना है कि पवित्र और मूल्यवान विचार पुस्तकालयों और विशेषज्ञों से नहीं अपितु सामाजिक भागीदारी और संघर्ष से ही पैदा होते हैं। आज हमारे समाज के सामने लाखों यक्ष-प्रश्न हैं जिनके एकांगी और विविध, अनेकों उत्तर खोजने हैं । संस्कृति और सभ्यता के प्रश्न हैं, अस्मिता और जीवन के प्रश्न हैं, विकास के प्रश्न हैं, और मूल्यों के प्रश्न हैं। कुछ के उत्तर अलग अलग हैं और कुछ के समान। लेकिन एक बात जो मैंने उपरोक्त प्राध्यापकों से सीखी है वह यह है कि परमार्थिक और मूल्यवान, वैकल्पिक चिंतन के लिये हमें संस्थान परिसर के बाहर निकालना होगा और चिंतन के समुद्र में नये किनारों को ढूंढना होगा। दुनिया के कई देशों में Engaged Buddhism की आवाज़ उठी है जिसमें मार्क्सवाद, समाजवाद, धर्म, पर्यावरण, अस्तित्व और टिकाऊ विकास के प्रत्यय सम्मिलित हैं। विश्व की सर्वोत्तम वैज्ञानिक संस्था, MIT, में आचार संबंधी अध्ययन केंद्र स्थापित हुआ है और वैज्ञानिकों को नवीन की खोज में पुरातन की ओर देखना पड़ रहा है। क्यों न हम भी उपरोक्त प्राध्यापकों से प्रेरणा लेकर कुछ नया सोचें, अच्छा सोचें और ज्ञान-विज्ञान को वहाँ तक ले जाएँ जो उसका परम लक्ष्य है – मनुष्यता का उद्विकास। व्यष्टि समष्टि के लिए समर्पित हो, और समष्टि व्यष्टि के लिए कल्याणकारी हो। इस के लिए कुछ समय अपने प्रॉफेश्नल कर्तव्यों के बाद समाज के साथ, समाज में अवश्य दे पाऊँ ऐसी अपने मन में धारणा करता हूँ।

(प्रो. शर्मा आईआईटी कानपुर में मानविकी विभाग में समाजशास्त्र के प्राध्यापक हैं)

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