बुधवार, 26 अगस्त 2015



सपने तब सिर्फ सपने थे.. उनकी परमिति सदैव सम्पूर्ण थी..
पूरे सपने
सपनों में चाहत थी पर चाह न थी..
शुद्ध सपने, पवित्र सपने.. कुछ डरावने से.. कुछ मेरे छत से गिरते.. कुछ दोस्तों के संग भटकते..कुछ आसमान में उड़ते और कुछ गुज़रे अपनों से मिलने आते थे..
आते थे यूँ ही और कुछ कह के चले जाते थे..
फिर सपने दूषित हुए,
आकांक्षा की अशुद्धियाँ मिलाई गयीं.. 
आज कहता हूँ..
सपने नहीं दिखाए गए..
सपने तो मेरे तभी पूरे थे..
जो पूरा हुआ वो कुछ और था.. वो अभिलाषा थी..
वो जो दे गया वो किसी सपने की पूर्ति न थी.. 
वो यथार्थ था.. स्वप्नहीन यथार्थ जिसमे कभी पूरे सपने नहीं आते..


Nakul Surana
#A